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________________ श्रीमद् रामचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [४-मल्लेखना अवस्थामें धर्मसे पराङ मुख रहते हैं, अर्थात् जिन्होंने व्रत नियमादि धर्माराधना नहीं की है, वे पुरुष अन्त कालमें धर्मके सन्मुख अर्थात् संन्यासयुक्त कभी नहीं हो सकते। क्योंकि “चिरन्तनाभ्यासनिबन्धनेरिता' गुणेषु दोषेषु च जायते मतिः" चिरकालके अभ्याससे प्रेरित को हुई बुद्धि गुण और दोषों में जाती है। जो वस्त्र पहलेसे उज्ज्वल होता है, उसपर मनोवांछित रंग चढ़ सकता है, परन्तु जो वस्त्र पहिलेसे मलीन होता है, उसपर रंग कभी नहीं चढ़ाया जा सकता। अतएव संन्यासमरण वही धारण कर सकता है, जो पहिली अवस्थासे हो धर्म की आराधनामें दत्तचित्त रहा हो । हाँ, कहीं कहीं ऐसा भी देखा गया है कि जिस पुरुषने जन्मभर धर्मसेवा में चित्त नहीं लगाया था, वह भी संन्यासपूर्वक मरण करके स्वर्गादि सुखोंको प्राप्त हो गया। यह काकतालीयन्यायवत् २, अति कठिन है. इसलिये जिनवचनोंके श्रद्धानी पुरुषोंको उक्त शंकाको अपने चित्तमें कभी स्थान न देना चाहिये। संन्यासार्थी पुरुषको चाहिये, कि जहाँतक बने; जिन भगवानकी जन्मादि तीर्थ-भूमियोंका आश्रय ग्रहण करे और यदि तीर्थ भूमि की प्राप्ति न हो सके, तो मन्दिर अथवा संयमी जनोंके आश्रयमें रहे। संन्यासार्थी तीर्थ के जाते समय सबसे क्षमाकी याचना करे और आप भी मन वचन कायपूर्वक सब प्राणियोंको क्षमा करे । अन्त समय क्षमा करनेवाला संसारका पारगामी होता है,और बैर विरोध रखनेवाला अर्थात् क्षमा न रखनेवाला अनन्त संसारी होता है। संन्यासार्थी पुरुषको पुत्र कलत्रादिक कुटुम्बियोंसे तथा सांसारिक सम्पदामोंसे सर्वथा मोह छोड़ देना चाहिये, परन्तु उत्तम साधक पुरुषोंकी सहायता अवश्य लेनी चाहिये, क्योंकि साधर्मी तथा प्राचार्योंकी सहायतासे अशुभ कर्म यथेष्ट विघ्न करनेको समर्थ नहीं हो सकते । व्रतके अतीवारोंको सामियोंके अथवा प्राचार्य के सन्मुख प्रकट कर निःशल्य हो कर प्रतिक्रमण प्रायश्चित्त शास्त्र में कही हुई विधियोंसे शोधन करना चाहिये। निर्मल भावरूप अमृतसे सिंचित समाधिमरणके लिये पूर्व तथा उत्तर दिशाकी अोर मस्तक पारोपित करे, यदि श्रावक महाव्रत की याचना करे, तो निर्णायक प्राचार्यको उचित है कि उसे महावत देवे । महाव्रत ग्रहण में नग्न होना चाहिये, अजिकाको भी अन्तकाल उपस्थित होने पर एकान्त स्थान में वलोंका त्याग करना उचित कहा है। साँथरेके समय नाना प्रकारके योग्य आहार दिखाकर भोजन करावे. और जो उसे अज्ञानतावश भोजन में प्रासक्त समझे, तो परमार्थज्ञाता प्राचार्यको चाहिये कि उस अपने प्रभावशाली व्याख्यानके द्वारा इस प्रकार समझावे कि हे जितेन्द्रिय ! तू भोजन शयनादिरूप कल्पिन पुद्गलोंको अब भी उपकारी समझता है और यह जानता है कि इनमें से कोई पुद्गल से भी हैं । जो मैने भोगे नहीं हैं। यह बड़े आश्चर्यकी बात है। भला सोच तो सही, कि ये मूर्तिमन्त पुद्गल तुझ अरूपी में किसी प्रकार मिल भी सकते हैं। तूने इन्हें केवल इन्द्रियोंसे ग्रहणपूर्वक अनुभवनकर यह जान रक्खा है कि मैं ही इनका भोग करता हूं । सो हे दूरदर्शी!अब इस भ्रान्त बुद्धिको सर्वथा छोड़ दे और आत्मतत्त्वमें लवलीन हो। यह वह समय है, जिसमें जानी जीव शुद्धता में सावधान रहते हैं, और चिन्तवन करते हैं कि मैं अन्य हूं और वे पुद्गल मुझसे सर्व या भिन्न अन्य ही पदार्थ हैं, इसलिये हे महाशय ! पर द्रव्योंसे मोह छोड़ करके अपने प्रात्मामें स्थिर १-चन्द्रप्रभचरिते प्रथमसग । २ ताड़ वृक्षसे अचानक फलका टूटना और उड़ते हुएकाकको प्राकाशमें ही प्राप्त हो जाना जिस प्रकार कठिन है, उसी प्रकार संस्कारहीन पुरुषका समाधिमरण पाना कठिन है।
SR No.022412
Book TitlePurusharth Siddhyupay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1977
Total Pages140
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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