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श्लोक १७६-१७८
पुरुषार्थसिद्ध पायः प्राणोंको [व्यपरोपयति] पृथक् कर देता है, [तस्य] उसके [प्रात्मवध:] आत्मघात [सत्यम्] सचमुच स्याद] होता है।
भावार्थ - जो जीव क्रोध,, मान, माया, लोभके वश अथवा इष्ट-वियोगके खेदके वश, तथा अागामी निदानके वश, अपने प्राणों का अग्नि शस्त्रादिकोंसे घात कर डालते हैं, उन्हें आत्मघातका दोष लगता है । जैसे- पतिके पीछे लीका सती होना, हिमालय में गलना, काशी करवत लेनी आदि। किन्तु संन्यासपूर्वक मरण करने वालोंको आत्मघात का दोष नहीं लगता।
विशेष-सल्लेखनाधर्म गृहस्थ और मुनि दोनोंका है, तथा सल्लेखना व संन्यासमरणका अर्थ भी एक है, इसलिये बारह व्रतोंके पश्चात् सल्लेखनाका निरूपण किया है। इस सल्लेखना व्रतको उत्कृष्ट मर्यादा बारह वर्ष पर्यन्त है; ऐसा श्रीवीरनन्दिकृत यत्याचारमें कहा है।
जब शरीर किसी असाध्य रोगसे अथवा वृद्धावस्थासे असमर्थ हो जावे, देव मनुष्यादिकृत कोई दुनिवार उपसर्ग उपस्थित हुया होवे, किसी महा दुर्भिक्षसे धान्यादि भोज्य पदार्थ दुष्प्राप्य हो गये होवें, अथवा धर्मके विनाश करने वाले कोई विशेष कारण प्रा मिले होवें, तब अपने शरीरको पके हुए पानके समान तथा तैलरहित दीपकके समान अपने आप ही विनाशके सन्मुख जान संन्यास घारण करे। यदि मरण में किसी प्रकारका सन्देह हो, तो मर्यादापूर्वक ऐसी प्रतिज्ञा करे, कि जो इस उपसर्गमें मेरी मृत्यु हो जावेगी, तो मेरे पाहारादिका सर्वधा त्याग है और जो कदाचित् जीवन अवशेष रहेगा, तो आहारादिक को ग्रहण करूंगा, यह संन्यास ग्रहण करनेका क्रम है।
'शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्'इस वाक्य के अनुसार शरीरकी रक्षा करना परम कर्तव्य है,क्योंकि धर्मका माधन शरीरसे ही होता है, इसलिये रोगादिक होनेपर यथाशक्ति औषध करना चाहिये, परन्तु जब असाध्य रोग हो जावे और किसी प्रकारके उपचारसे लाभ न होवे, तब यह शरीर, दुष्टके समान सर्वथा त्याग कर देने योग्य कहा है, और इच्छित फलका देनेवाला धर्म विशेषतासे पालने योग्य कहा है। शरीर मृत्यु के पश्चात् फिर भी प्राप्त होता है, परन्तु धर्म पालनेकी योग्यता पाना अतिशय दुर्लभ है। इस कारण विधिपूर्वक देहके त्यागमें दुःखित न होकर संयमपूर्वक मनो वचन कायके व्यापार प्रात्मा में एकत्रित करना चाहिये, और 'जन्म, जरा तथा मृत्यु शरीरसम्बन्धी हैं, मेरे नहीं हैं" ऐसा चितवन कर निर्ममत्व होकर विधिपूर्वक आहार घटाकर शरीर कृश करना चाहिये, तथा शास्त्रामृतके पानसे कषायों को कृश करना चाहिये, पश्चात् चार प्रकार के संघको' साक्षी करके समाधिमरण में उद्यमवान् होना चाहिये।
अन्तकी आराधनासे चिरकालकी की हुई व्रतनियमरूप धर्माराधना सफल हो जाती है, क्योंकि इससे क्षणभर में बहुत कालसे संचित पापका नाश हो जाता है, और यदि अन्त मरण बिगड़ जावे, अर्थात् असंयमपूर्वक मृत्यु हो जावे, तो पूर्वकृत धर्माराधना निष्फल हो जाती है। यहाँपर यदि कोई पुरुष यह प्रश्न करे कि, "जो अन्त समय समाधिमरण कर लेनेसे क्षणमात्रमें पूर्व पापोंका नाश हो जाता है, तो फिर युवादि अवस्थानों में धर्म करनेकी क्या आवश्यकता है ? अन्त समय संन्यास धारण कर लेनेसे ही सर्व मनोरथ सिद्ध हो जावेंगे," तो इसका समाधान इस प्रकार होता है कि "जो पुरुष अपनी पूर्व
१-मुनि, आर्यिका, श्रावक, श्राविका