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________________ [ ७० ] गाथा-दव्वेण सयलणग्गा णारयतिरिया य सयलसंघाया। परिणामेण असुद्धा ण भावसवणत्तणं पत्ता ॥६॥ छाया-द्रव्येण सकला नग्नाः नारकतिर्यञ्चश्चसकल संघाताः। परिणामेन अशुद्धाः न भावभ्रमणत्वं प्राप्ताः ॥६॥ अर्थ-बाह्य रूप से तो सभी जीव नग्न रहते हैं । नारकी, तिर्यश्च और मनुष्यादि का समुदाय नग्न रहता है। किन्तु परिणाम अशुद्ध होने से भावमुनिपने (भावलिंगपने ) को प्राप्त नहीं होते ॥६॥ .. गाथा-णग्गो पावइ दुक्खं णग्गो संसारसायरे भमई। णग्गो ण लहइ बोहिं जिणभावणवज्जियं सुइरं ॥६८।। छाया-नग्नः प्राप्नोति दुःखं नग्नः संसारसायरे भ्रमति । नग्नः न लभते बोधिं जिनभावनावर्जितः सुचिरम् ॥६॥ अर्थ-जिनभगवान् की भावना रहित नग्न जीव बहुत काल तक दुःख पाता है, संसार समुद्र में भ्रमण करता है, और रत्नत्रय को भी नहीं पाता है ॥८॥ गाथा-अयसाण भायणेण य किंते णग्गेण पावमलिणेण । पेसुण्णहासमच्छरमायाबहुलेण सवणेण ॥६॥ छाया-अयशसां भाजनेन किंते नग्नेन पापमलिनेन । . पैशून्यहास्यमत्सरमायाबहुलेन श्रमणेन ॥६॥ अर्थ-हे मुनि ! ऐसे नग्नपने और मुनिपने से क्या प्रयोजन सिद्ध हो सकता है, जो अयश (बुराई ) के योग्य है, पाप से मलिन है तथा पैशून्य (दूसरों का दोष कहना) हंसी; ईर्षा, मायादि बहुत से विकारों से परिपूर्ण है ॥६॥ गाथा-पयडहिं जिणवरलिंगं अभिंतरभावदोसपरिसुद्धो । भावमलेण य जीवो बाहिरसंगम्मि मयलियई ॥७॥ छाया-प्रकटय जिनवरलिंगं अभ्यन्तरभावदोषपरिशुद्धः। भावमलेन च जीवः बाह्यसंगे मलिनयति ॥७॥
SR No.022411
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParasdas Jain
PublisherBharatvarshiya Anathrakshak Jain Society
Publication Year1943
Total Pages178
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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