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________________ [ ६६ ] अर्थ-जो भव्य जीव आत्मा का स्वभाव अस्तित्वरूप (मौजूदगी) मानते हैं तथा बिल्कुल अभावरूप नहीं मानते। वे जीव शरीररहित और वचन से न कहने योग्य सिद्ध होते हैं । ६३ ।। गाथा--अरसमरू वमगंधं अव्वतं चेयणागुणमसहं। जाणमलिंगग्गहणं जीवमणिहिट्टसंठाणं ॥४॥ छाया-अरसमरूपमगन्धं अव्यक्तं चेतनागुणमशब्दम् । ___जानीहि अलिंगग्रहणं जीवमनिर्दिष्ट संस्थानम् ॥६४॥ अर्थ हे भव्य जीव ! तू जीव का स्वरूप ऐसा जान कि वह रस, रूप और गन्ध रहित है, इन्द्रियों से प्रगट नहीं जाना जाता, चेतना गुण सहित, शब्द, लिंग रहित तथा आकार रहित है ॥३४॥ . रहा ॥३४॥ . 'गाथा-भावहि पंचपयारंणाणं अण्णाणणासणं सिग्धं । भावणभावियसहिओ दिवसिवसुहभायणो होइ ।।६।। छाया--भावयपंचप्रकारं ज्ञानं अज्ञाननाशनं शीघ्रम् । __ भावनाभावितसहितः दिवशिवसुखभाजनं भवति । अर्थ हे भव्य जीव ! तू आत्मा की भावना सहित होकर अज्ञान का नाश करने । वाले पंच प्रकार के ज्ञान का शीघ्र ही चिन्तवन कर, जिससे जीव स्वर्ग और मोक्ष के सुख का पात्र होता है ॥६॥ ... गाथा-पढिएणवि किं कीरइ किंवा सुणिएण भावरहिएण। भावो कारणभूदो सायारणयारभूदाणं ॥६६॥ छाया-पठितेनापि किं क्रियते किंवा श्रुतेन भावरहितेन । भावः कारणभूतः सागारानगारभूतानाम् ॥६६।। अर्थ-भावरहित ज्ञान के पढ़ने और सुनने से क्या कार्य सिद्ध होता है अर्थात् स्वर्ग मोक्षादि रूप कुछ भी कार्य सिद्ध नहीं होता। इसलिए श्रावकपने और मुनिपने का कारण भाव ही जानना चाहिए ॥६६॥
SR No.022411
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParasdas Jain
PublisherBharatvarshiya Anathrakshak Jain Society
Publication Year1943
Total Pages178
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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