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________________ [ ६६ ] गाथा-तुसमासं घोसंतो भावविसुद्धो महाणुभावो य। णामेण य सिवभूई केवलणाणी फुडं जाओ ॥३॥ छाया-तुषमाष घोषयन् भावविशुद्धः महानुभावश्च ।। नाम्ना च शिवभूतिः केवलज्ञानी स्फुटं जातः॥५३।। अर्थ-विशुद्ध परिणाम वाले और अत्यन्त प्रभावशाली शिवभूति मुनि 'तुषमाष' इस पद को रटते हुए केवलज्ञानी होगए यह बात सब जगह प्रसिद्ध है ॥५३॥ गाथा-भावेण होइ णग्गो बाहिरलिंगेण किं च णग्गेण । कम्मपयडीयणियरं णासइ भावेण दव्वेण ॥५४॥ छाया-भावेन भवति नग्नः बहिर लिंगेन किं च नग्नेन । कर्मप्रकृतीनां निकरं नश्यति भावेन द्रव्येण ॥५४॥ अर्थ-भाव से ही निर्ग्रन्थरूप सार्थक है किन्तु केवल बाह्य नग्नमुद्रा से कोई मोक्ष आदि कार्य सिद्ध नहीं होता है। क्योंकि भाव सहित द्रव्यलिंग से ही कर्मप्रकृतियों का समुदाय नष्ट होता है ॥५४॥ गाथा-णग्गत्तणं अकजं भावणरहियं जिणेहिं पण्णत्तं । इय णाऊण य णिच्चं भाविजहि अप्पयं धीर ! ॥५॥ छाया-नग्नत्वं अकार्य भावरहितं जिनैः प्रज्ञप्तम् । इति ज्ञात्वा च नित्यं भावयेः आत्मानं धीर ! ॥५॥ अर्थ-भावरहित नग्नपना निष्फल (व्यर्थ) है, ऐसा जिन भगवान् ने कहा है। __ ऐसा जानकर हे धीर मुनि ! सदा आत्मा के स्वरूप का चिन्तवन कर॥५॥ गाथा-देहादिसंगरहिओ माणकसाएहिं सयलपरिचत्तो। ___ अप्पा अप्पम्मि रओ स भावलिंगी हवे साहू ॥५६॥ छाया- देहादिसंगरहितः मानकषायैः सकलपरित्यक्तः । आत्मा आत्मनि रतः स भावलिंगी भवेत् साधुः ।। ५६ ॥ .
SR No.022411
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParasdas Jain
PublisherBharatvarshiya Anathrakshak Jain Society
Publication Year1943
Total Pages178
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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