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________________ ..... [६५ ] छाया-दण्डकनगरं सकलं दग्ध्वा अभ्यन्तरेण दोषेण । जिनलिंगेनापि बाहुः पतितः स रौरवे नरके ॥४॥ अर्थ-जिनलिंग का धारक बाहुमुनि अन्तरंग कषायों के दोष से सारे दण्डकनगर को जलाकर सातवीं नरकभूमि के रौरव नरक (बिल) में नारकी उत्पन्न हुआ। गाथा-अवरोवि दव्वसवणो दंसणवरणाणचरणपन्भट्ठो। दीवायणुत्ति णामो अणंतसंसारिओ जाओ ॥५०॥ छाबा-अपरः इति द्रव्यश्रमणः दर्शनवरज्ञानचरणप्रभ्रष्टः । द्वीपायन इति नामा अनन्तसांसारिकः जातः ।।५।। अर्थ और भी एक द्वीपायन नामक द्रव्यलिंगी मुनि सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्र से भ्रष्ट होकर अनन्तसंसारी ही बना रहा ॥५०॥ गाथा-भावसमणो य धीरो जुवईजणवेडिओ विसुद्धमई । णामेण सिवकुमारो परीत्तसंसारित्रो जादो ॥५१॥ . छाया-भावश्रमणश्चधीर; युवतिजनवेष्टितः विशुद्धमतिः। नाम्ना शिवकुमारः परित्त्यक्तसांसारिकः जातः । अर्थ-भावलिंग का धारक धीर वीर शिवकुमार मुनि अनेक युवतियों के द्वारा चलायमान करने पर भी विशुद्ध ब्रह्मचर्य का धारक संसार का त्याग करने वाला अर्थात् निकटभव्य होगया ।।५१॥ . गाथा-अंगाई दस य दुरिणय चउदसपुव्वाई सयलसुयणाणं । पढिओ अ भव्वसेणो ण भावसवणत्तणं पत्तो ॥५२॥ छाया-अङ्गानि दश च द्वे च चतुर्दशपूर्वाणि सकलश्रुतज्ञानम् । - पठितश्चभन्यसेनः न भावश्रमणत्वं प्राप्तः ॥५२॥ अर्थ-एक भव्यसेन नामक मुनि ने बारह और चौदहपूर्व रूप सम्पूर्ण श्रुतज्ञान को पढ़ लिया, तो भी भावमुनिपने को प्राप्त नहीं हुआ, अर्थात् यथार्थ तत्वों के श्रद्धान बिना अनन्त संसारी ही बना रहा ॥५२॥
SR No.022411
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParasdas Jain
PublisherBharatvarshiya Anathrakshak Jain Society
Publication Year1943
Total Pages178
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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