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________________ [ ६० ] से जानता है सो सम्यग्ज्ञान है । जो आत्मा में लीन होकर आचरण करता है तथा द्वेष का त्याग करता है सो सम्यक् चारित्र है ||३१|| - अण्णे कुमरणमरणं अयजम्मतराई मरिओसि । भावाहि सुमरणमरणं जरमरणविणासरणं जीव ! ||३२|| गाथा छाया - अन्यस्मिन् कुमरणमरणं अनेकजन्मान्तरेषु मृतोऽसि । भावय सुमरणमरणं जरामरणविनाशनं जीव ! ॥३२॥ अर्थ - हे जीव ! तू अन्य अनेक जन्मों में कुमरणमरण से मृत्यु को प्राप्त हुआ । इसलिये अब तू जरामरणादि का नाश करने वाले सुमरणमरण का विचार कर ||३२| गाथा - सो गत्थि दव्वसवणो परमाणुपमाणमेत्तओ लिओ । जत्थ ण जाओ ण मओ तियलोयपमाणि सव्वो ॥३३॥ छाया - स नास्ति द्रव्यश्रयणः परमाणुप्रमाणमात्रो निलयः । यत्र न जातः न मृतः त्रिलोकप्रमाणकः सर्वः ॥३३॥ अर्थ- - इस तीन लोक प्रमाण लोकाकाश में ऐसा कोई परमाणुमात्र भी स्थान नहीं है जहां इस जीव ने द्रव्यलिंग धारण कर जन्म और मरण नहीं पाया ||३३|| गाथा - कालमतं जीवो जम्मजरारमणपीडिओ दुक्खं । जि लिंगेण विपत्तो परंपराभावरहिए || ३४॥ छाया - कालमनन्तं जीवः जन्मजरामरणपीडितः दुःखम् । जिनलिंगेन अपि प्राप्तः परम्पराभावर हितेन ||३४|| अर्थ- - इस जोव ने वर्धमान स्वामी से लेकर केवली श्रुतकेवली और दिगम्बर आचार्यों की परम्परा से उपदेश किये हुए भावलिंग के परिणाम रहित द्रव्यलिंग के द्वारा अनन्त काल तक जन्म जरा और मरण से पीड़ित होकर दुःख ही पाया ||३४|| गाथा - पडिदेससमय पुग्गल या उगपरिणाम कालट्ठ । गहियाई बहुसो अणभवसायरे जीवो ||३५||
SR No.022411
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParasdas Jain
PublisherBharatvarshiya Anathrakshak Jain Society
Publication Year1943
Total Pages178
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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