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________________ [ ५६ ] अर्थ - हे आत्मा ! तु निकोत अर्थात् लब्ध्यपर्याप्तक अवस्था में एक अन्तर्मुहूर्त में ६६३३६ बार मृत्यु को प्राप्त हुआ ||२८|| भावार्थ - जो जीव अपने २ योग्य पर्याप्ति पूर्ण न करके अन्तर्मुहूर्त में मर जाता है उसे लब्ध्यपर्याप्तक कहते हैं । गाथा - वियलिंदिए असीदी सट्टी चालीसमेव जाणेह | पंचिदिय चउवीसं खुद्दभवंतो मुहुत्तस्स ॥२६॥ छाया - विकलेन्द्रियाणामशीतिः षष्टि चत्वारिंशदेव जानीहि । पंचेन्द्रियाणां चतुर्विंशतिः क्षुद्रभवा अन्तर्मुहूर्तस्य ॥२६॥ अर्थ - हे आत्मा ! अन्तर्मुहूर्त के इन क्षुद्रभवों में द्वीन्द्रियों के ८०, त्रीन्द्रियों के ६०, चतुरिन्द्रियों के ४० और पंचेन्द्रियों के २४ भव होते हैं, ऐसा तू जान ॥ २६॥ गाथा - रयणत्तये अद्वे एवं भमिश्रसि दीहसंसारे । जिवरेहिं भणिश्र तं रयणत्तय समायरह ||३०|| छाया -- रत्नत्रये अलब्धे एवं भ्रमितो ऽसि दीर्घ संसारे । इति जिनवरैर्भणितं तत् रत्नत्रयं समाचर ॥३०॥ अर्थ - हे जीव ! तूने रत्नत्रय प्राप्त न होने से इस प्रकार अनादि संसार में भ्रमण किया, इसलिये तू रत्नत्रय को धारण कर ऐसा जिनेन्द्र भगवान ने कहा है ||३०|| गाथा - अप्पा अप्पम्मि रश्रो सम्माइट्ठी हवे इफुडु जीवो । जाणइ तं सण्णाणं चरदिह चारित्तमग्गुत्ति ||३१|| छाया - आत्मा आत्मनि रतः सम्यग्दृष्टिः भवति स्फुटं जोवः । जानाति तत् संज्ञानं चरतीह चारित्रमार्ग इति ॥३१॥ अर्थ - रत्नत्रय दो प्रकार का है निश्चय और व्यवहार । यहां निश्चय रत्नत्रय का वर्णन करते हैं। जो आत्मा आत्मा में लीन होता है अर्थात् आत्मानुभव रूप श्रद्धान करता है वह सम्यग्दृष्टि है । जो आत्मा को यथार्थं
SR No.022411
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParasdas Jain
PublisherBharatvarshiya Anathrakshak Jain Society
Publication Year1943
Total Pages178
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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