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________________ (५) भावपाहुड गाथा- णमिऊण जिणवरिंदे णरसुरभवणिंदवंदिए सिद्धे । वोच्छामि भावपाहुडमवसेसे संजदे सिरसा ॥१॥ छाया- नमस्कृत्य जिनवरेन्द्रान नरसुरभवनेन्द्रवन्दितान् सिद्धान् । वक्ष्यामि भावप्राभृतमवशेषान् संयतान् शिरसा ॥१॥ अर्थ- आचार्य कहते हैं कि मैं चक्रवर्ती, इन्द्र और धरणेन्द्र आदि से नमस्कार करने योग्य अरहन्तों को, सिद्धों को तथा शेष प्राचार्य, उपाध्याय और सर्वसाधुओं को इस प्रकार पांचों परमेष्ठियों को मस्तक से नमस्कार करके भावप्राभृत नामक ग्रन्थ को कहूंगा ॥ गाथा- भावोहि पढमलिंगंण दवलिंगं च जाण परमथं । भावो कारणभूदो गुणदोसाणं जिणा विति ॥२॥ छाया- भावो हि प्रथमलिंगं न द्रव्यलिंगं च जानीहि परमार्थम् । ___ भावः कारणभूतः गुणदोषाणां जिना विदन्ति ॥२॥ अर्थ-जिन दोक्षा का प्रथम चिन्ह भाव ही है, इस लिये हे भव्य ! तू द्रव्यलिंग को परमार्थरूप मत जान, क्योंकि गुण और दोषों के उत्पन्न होने का कारण भाव ही है ऐसा जिनेन्द्र भगवान् कहते हैं। गाथा- भावविसुद्धिणिमित्तं बाहिरगंथस्स कीरए चाओ । बाहिरचाओ विहलो अब्भतरगंथजुत्तस्स ॥३॥ छाया- भावविशुद्धिनिमित्तं बाह्यग्रन्थस्य क्रियते त्यागः । बाह्यत्यागः विफलः अभ्यन्तरग्रन्थयुक्तस्य ॥३॥
SR No.022411
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParasdas Jain
PublisherBharatvarshiya Anathrakshak Jain Society
Publication Year1943
Total Pages178
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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