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________________ [३] "हेयोपादेयतत्त्वस्य साभ्युपायस्य वेदकः । यः प्रमाणमसाविष्टः न तु सर्वस्य वेदकः ॥ सवै पश्यतु वा मा वा तत्त्वमिष्टं तु पश्यतु । कीटसंख्या परिज्ञानं तस्य नः क्वोपयुज्यते ॥" भाव यह है कि वह सबको जाने या न जाने पर उसे हेय और उपादेय और उनके उपाय रूप धर्म का अवश्य परिज्ञान होना चाहिए । उसे प्रत्यक्ष धर्मज्ञ होना चाहिए। धर्म के सिवाय अन्य कीड़े मकौड़ों की संख्या के ज्ञान का क्या उपयोग है ? आदि ___ इस तरह हम देखते हैं कि दर्शनयुग के मध्यकाल में भी विवाद धर्मज्ञता में था न कि सर्वज्ञता में। सर्वज्ञता का मानना न मानना मुद्दे की वस्तु नहीं थी। * अन्य दर्शनों में सर्वज्ञता एक योगजन्य विभूति के रूप में स्वीकृत है वह सभी मोक्ष जाने वालों को अवश्य प्राप्तव्य तथा मोक्ष में रहने वाली वस्तु नहीं है। यह तो जैन दर्शन की विशेषता है कि इसमें सर्वज्ञता सभी मोक्ष जाने वालों को प्राप्त होती है तथा सिद्ध अवस्था में भी अनन्तकाल तक बनी रहती है। (२) लेखक ने प्रवचनसार में तथा अष्टपाहुड में आई हुई स्त्रीदीक्षा का निषेध करने वाली गाथाओं के प्रक्षिप्त होने का प्रश्न अत्यन्त स्पष्टता और निर्भयता से उठाया है। इन गाथाओं से जैसा कि लेखक का लिखना है कि कुन्दकुन्द एक कट्टर साम्प्रदायिक और स्त्रियों से घृणा करने वाले व्यक्ति के रूप में उपस्थित होते हैं । मेरा विचार है कि कुन्दकुन्द उस समय के व्यक्ति हैं जब साम्प्रदायिक मतभेद की बातों ने संघर्ष का रूप नहीं पकड़ा था। और इसीलिए इसमें सन्देह को काफी गुंजाइश है कि क्या ये गाथाएं स्वयं कुन्दकुन्द की कृति होंगी ? मेरा तो यह भी विचार पुष्ट होता जाता है कि दिगम्बर आचार्यों का स्त्रीमुक्ति और केवलिमुक्ति जैसे साम्प्रदायिक विषयों पर श्वेताम्बरों से उतना विरोध नहीं था जितना यापनीय संघ के प्राचार्यों से था। ये यापनीय आचार्य स्वयं नग्न रह कर भी आचाराँग आदि आगमों को प्रमाण मानते थे तथा केवलिमुक्ति और स्त्रीमुक्ति का समर्थन करते थे । यापनीय आचार्य शाकटायन ने केवलि मुक्ति और स्त्रीमुक्ति ये दो प्रकरण ही बनाये हैं जिनका खंडन आ० प्रभाचन्द्र ने न्य य कुमुदचन्द्र में किया है। आचार्य कुन्दकुन्द दिगम्बर थे और इसीलिए वे स्त्रीमुक्ति के विरोधी रहे होंगे। यह बात असंदिग्ध है । पर क्या उनके समय में इन विषयों पर उस रूप में साहित्यिक संघर्ष चालू हो गया होगा? यही प्रश्न ऐसा है जो हमें इस नतीजे पर पहुँचा देता है कि उक्त गाथाएं प्रक्षिप्त होनी चाहिए। आ. अमृतचन्द्र जो कि कुन्दकुन्द के उपलब्ध टीकाकारों में प्राद्य टीकाकार हैं, उम गाथाओं की व्याख्या * इसके विशेष इतिहास के लिए अकलङ्कग्रन्थत्रय की प्रस्तावना का सर्वज्ञत्व विचार तथा प्रमाण मीमांसा भाषा टिप्पण (पृ. २१) देखना चाहिए।
SR No.022411
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParasdas Jain
PublisherBharatvarshiya Anathrakshak Jain Society
Publication Year1943
Total Pages178
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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