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________________ [२] को जानने की शक्तियों के आधार भूत आत्मा को तो जानना ही पड़ेगा अन्यथा उन पदार्थों का ज्ञान ही नहीं हो सकेगा । उनका यह वर्णन आचारान सूत्र (१२३) के "जे एगं जाणइ से सव्वं जाणइ. जे सावं जाणइ से एगं जाणइ" अर्थात जो एक को जानता है वह सबको जानता है और जो सबको जानता है वह एक को जानता है। इस सूत्र में बताए गए सिद्धान्त का दार्शनिक रूप है । जो केवल इतना ही निर्देश करता है कि त्रिकालदर्शी पदार्थों का सामान्य ज्ञान ही अपेक्षित है। उपनिषदों में “य आत्मवित् स सर्ववित्" जो आत्मा को जानता है वह सबको जानता है इस आशय के अनेकों वाक्य मिलते हैं। मेरा यह विश्वास है कि दर्शनयुग के पहिले आत्मज्ञता पर ही अधिक भार था । यह तो तके युग की विशेषता है कि इस युग में उन सिद्धान्तों की भावनाओं पर उतना ध्यान नहीं रहा जितना दर्शन प्रभावना तथा शाब्दिक खींचतान पर । अस्तु, पर इतना अवश्य कहा जा सकता है कि आ० कुन्द कुन्द निश्चय से आत्मज्ञान वाले सिद्धान्त के कायल थे और वे उसका मुख्यरूप से प्रतिपादन करना चाहते हैं । सर्वज्ञ शब्द के अर्थ का एक अपना इतिहास है जो विभिन्न समयों में विभिन्न दर्शनों में अलग २ रूप में विकसित हुआ है। सर्वज्ञत्व के प्रबल विरोधी - मीमांसक का विवाद सर्वज्ञ शब्द के साधारण अर्थ से नहीं है। वह इस बात का विरोधी है कि धर्म आदि अतीन्द्रिय पदार्थों को कोई प्रत्यक्ष से नहीं जान सकता, इसका ज्ञान नेद के द्वारा ही हो सकता है। उसे किसी को प्रत्यक्ष से धर्मज्ञ बनाना सह्य नहीं है। यदि धर्म आदि अतीन्द्रिय पदार्थों को वेद से तथा अन्य पदार्थों को यथा संभव प्रत्यक्ष अनुभव आदि प्रमाणों को जानकर कोई यदि टोटल में सर्वज्ञ बनता है तो उसे कोई आपत्ति नहीं है । कुमारिल भट्ट मीमांसा श्लोक वार्तिक (पृ० ८.) में स्पष्ट लिखते हैं: "यदि षभिः प्रमाणैः स्यात् सर्वज्ञः केन वार्यते । एकेन तु प्रमाणेन सर्वज्ञो वेन कल्प्यते । नूनं स चक्षुषा सर्वान् रसादीन् प्रतिपद्यते ॥" मीमांसा श्लो०) "धर्मज्ञत्वनिषेधस्तु केवलोऽत्रोपयुज्यते । सर्वमन्यद्विजानंस्तु पुरुषः केन वायते ।।" * (तत्त्व सं० पृ० ८१७) . अर्थात सर्वज्ञनिषेध से हमारा तात्पर्य धर्मज्ञनिषेध से है, धर्म को वेद के हारा और अन्य पदार्थों को प्रत्यक्षादि प्रमाणों से जानकर कोई सर्वज्ञ बनता है तो हमें कोई विरोध नहीं । एक प्रत्यक्ष प्रमाण से सर्वज्ञ बनने वाला व्यक्ति तो आँखों से ही रस को चखने का साहस करता है आदि । परन्तु बौद्ध दार्शनिक धर्म कीति अपने प्रमाण वार्तिक (२-३२-३३) में ठीक इसके विरुद्ध लिखते हैं; * यह कारिका कुमारिल के नाम से तत्त्वसंग्रह में उद्धृत है।
SR No.022411
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParasdas Jain
PublisherBharatvarshiya Anathrakshak Jain Society
Publication Year1943
Total Pages178
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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