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________________ [ १६ ] गाथा- जहजायरूवसरिसो तिलतुसमित्तं ण गिहदि हत्तेसु । - जइ लेइ अप्पबहुयं तत्तो पुण जाइ णिग्गोदं ॥ १८ ॥ छाया- यथाजातरूपसदृशः तिलतुषमात्रं न गृह्णाति हस्तयोः। यदि लाति अल्पबहुकं ततः पुनः याति निगोदम् ॥ १८ ॥ अर्थ-जो मुनि नग्नरूप दिगम्बर मुद्रा धारण करता है, वह अपने हाथ में तिल तुषमात्र अर्थात् तिल के छिलके के बराबर भी परिग्रह नहीं रखता है। यदि थोड़ा-बहुत परिग्रह रखता है तो उसके फल से निगोद में उत्पन्न होता है ॥ १८ ॥ गाथा-जस्स परिग्गहगहणं अप्पं बहुयं च हवइ लिंगस्स। सो गरहिउ जिणवयणे परिगहरहिओ निरायारो ॥ १६ ॥ छाया- यस्य परिग्रहप्रहणं अल्पं बहुकं च भवति लिंगस्य । - स गह्यः जिनवचने परिग्रहरहितः निरागारः ॥ १६ ॥ अर्थ-जिस लिंग (भेष) में थोड़ा बहुत परिग्रह ग्रहण करना बताया गया है, वह लिंग निन्दा के योग्य है, क्योंकि जिनागम में परिग्रह रहित को निर्दोष मुनि कहा गया है ॥ १६॥ गाथा-पंचमहव्वयजुत्तो तिहिं गुत्तिहिं जो स संजदो होई। णिग्गंथमोक्खमग्गो सो होदि हु वंदणिज्जो य ॥२०॥ छाया-पंचमहाव्रतयुक्तः तिमृभिः गुप्तिभिः यः स संयतो भवति । निर्ग्रन्थमोक्षमार्गः स भवति हि वंदनीयः च ॥ २०॥ अर्थ-जो मुनि पांच महाव्रत और तीन गुप्ति सहित है, वह संयमी होता है। वही परिग्रह रहित मोक्ष मार्ग है और वही नमस्कार करने योग्य है ॥२०॥ गाथा- दुइयं च उत्त लिंगं उक्टुिं अवरसावयाणं च। भिक्खं भमेह पत्ते समिदीभासेण मोणेण ॥ २१॥ छाया-द्वितीयं चोक्तं लिंग उत्कृष्टं अवरश्रावकाणां च । भिक्षां भ्रमति पात्रे समितिभाषेण मौनेन ॥ २१ ॥ , अर्थ-ग्यारहवीं प्रतिमाधारी उत्कृष्ट श्रावकों का दूसरा लिंग (भेष) बताया गया है, जो भिक्षावृत्ति से पात्र में आहार करता है, भाषासमितिरूप हितकारी प्रियवचन बोलता है, अथवा मौन धारण करता है ॥२१॥
SR No.022411
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParasdas Jain
PublisherBharatvarshiya Anathrakshak Jain Society
Publication Year1943
Total Pages178
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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