SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 43
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [ १५ ] गाथा- इच्छायारमहत्त्थं सुत्तठिो जो हु छंडए कम्मं । ठाणे ठियसम्मत्तं परलोयसुहंकरो होई ॥१४॥ छाया- इच्छाकारमहाथ सूत्रस्थितः यः स्फुटं त्यजति कर्म। ___ स्थाने स्थितसम्यक्त्वः परलोकसुखंकरो भवति ॥ १४॥ अर्थ-जो पुरुष जिनसूत्र में स्थित होता हुआ इच्छाकार शब्द के प्रधान अर्थ को समझता है। तथा सम्यक्त्व सहित श्रावक की प्रतिमा को धारण करके आरंभादिक कार्यों का त्याग करता है, वह परलोक में स्वर्गसुख पाता है ॥१४॥ गाथा- अह पुण अप्पा णिच्छदि धम्माई करेइ णिरवसेसाई। तहवि ण पावइ सिद्धिं संसारत्थो पुणो भणिदो ॥ १५॥ छाया- अथ पुनः आत्मानं नेच्छति धर्मान् करोति निरवशेषान् । तथापि न प्राप्नोति सिद्धिं संसारस्थः पुनः भणितः ॥ १५॥ .. अर्थ-तथा जो आत्मा को नहीं चाहता है अर्थात् आत्मस्वरूप का श्रद्धान नहीं करता है और अन्य सब धर्माचरणों को पालता है, तो भी वह मोक्ष नहीं पाता है, तथा उसको संसार में ठहरने वाला बताया गया है ॥१५॥ गाथा- एएण कारणेण य तं अप्पा सद्दहेह तिविहेण । जेण य लहेइ मोक्खं तं जाणिजइ पयत्तेण ॥ १६ ॥ छाया- एतेन कारणेन च तं आत्मानं श्रद्धत्त त्रिविधेन । येन च लभध्वं मोक्षं तं जानीत प्रयत्नेन ॥ १६॥ अर्थ-इस कारण हे भव्य जीवो ! तुम मन, वचन, काय से उस आत्मा का श्रद्धान करो। क्योंकि जिस कारण से मोक्ष प्राप्त करो उसको प्रयत्नपूर्वक जानना योग्य है ॥ १६॥ गाथा-बालग्गकोडिमत्तं परिगहगहणं ण होइ साहूणं । भुंजेइ पाणिपत्ते दिएणएणं इक्कठाणम्मि ॥ १७ ॥ छाया- बालाप्रकोटिमात्रं परिग्रहप्रहणं न भवति साधूनाम् । भुंजीत पाणिपात्रे दत्तमन्येन एकस्थाने ॥ १७ ॥ अर्थ-जैन शास्त्र में साधुओं के लिए बाल के अग्रभाग (नोक) के बराबर भी परिग्रह नहीं बताया गया है, क्योंकि वे तो एक ही बार अपने हाथ रूपी .. पात्र में दूसरे का दिया हुआ प्रासुक आहार लेते हैं ॥ १७ ॥ ।
SR No.022411
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParasdas Jain
PublisherBharatvarshiya Anathrakshak Jain Society
Publication Year1943
Total Pages178
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy