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________________ * अष्टपाहुड़ * of ( १ ) दर्शन पाहुड़ गाथा - काऊरण णमुक्कारं जिणवरवसहस्स वड्ढमाणस्स । दंसणमग्गं वोच्छामि जहाकम्मं समासे ॥ १ ॥ छाया - कृत्वा नमस्कारं जिनवरवृषभस्य वर्द्धमानस्य । दर्शनमार्गं वक्ष्यामि यथाक्रमं समासेन ॥ १ ॥ अर्थ - श्रीकुन्दकुन्दाचार्य कहते हैं कि मैं आदि तीर्थंकर श्रीवृषभदेव और अन्तिम तीर्थंकर श्रीवर्धमानस्वामी को नमस्कार करके सम्यग्दर्शन के मार्ग को क्रमपूर्वक संक्षेप से कहूंगा । दंसणमूलो धम्मो उवइट्ठोजिणवरेहिं सिरसागं । तं सोऊरण सकरणे दंसणहोणो ण वंदिव्वो ॥ २ ॥ छाया - - दर्शनमूलो धर्मः उपदिष्टः जिनवरैः शिष्याणाम् | तं श्रुत्वा स्वकर्णे दर्शनहीनो न वन्दितव्यः ॥ २ ॥ अर्थ — श्री जिनेन्द्रभगवान् ने गणधरादि शिष्यों के लिये दर्शनमूल धर्म का उपदेश दिया है । इसलिये हे भव्य जीवो ! उस दर्शनमूलधर्म को अपने कान से सुनो और जो सम्यग्दर्शन रहित है उसको नमस्कार न करो । गाथा गाथ:- दंसणभट्टा भट्टा दंसणभट्टस्स णत्थि णिव्वाणं । सिज्यंति चरियभट्टा दंसणभट्टा ण सिज्यंति ॥ ३ ॥ छाया - दर्शन भ्रष्टाः भ्रष्टाः दर्शनभ्रष्टस्य नास्ति निर्वाणम् । सिध्यन्ति चारित्रभ्रष्टाः दर्शन भ्रष्टाः न सिध्यन्ति ॥ ३ ॥ अर्थ — जो सम्यग्दर्शन से भ्रष्ट हैं, वे भ्रष्ट ही हैं। क्यों कि - जिनका सम्यग्दर्शन
SR No.022411
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParasdas Jain
PublisherBharatvarshiya Anathrakshak Jain Society
Publication Year1943
Total Pages178
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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