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________________ अनुवादक का वक्तव्य विज्ञ पाठको! जैन सिद्धान्त के उच्चतम ग्रन्थ अष्टपाहुड के रचयिता श्री कुन्दकुन्दाचार्य के विषय में कुछ कहना सूर्य को दीपक दिखाना है, कारण कि उक्त आचार्य के नाम से समाज का प्रत्येक व्यक्ति परिचित है। यद्यपि इनके जन्म स्थान और ग्रंथ रचना के काल में लोगों के भिन्न २ मत हैं, तथापि यहाँ केवल इतना ही कहना पर्याप्त होगा कि उपयुक्त आचार्य का जन्म विक्रम की दूसरी शताब्दी से पाँचवीं शताब्दी के मध्यकाल में हुआ है। तथा इन्होंने दक्षिण भारत के कौण्डकोण्ड नामक स्थान को अपने जन्म से विभूषित किया, उसी स्थान के नाम से इनका नाम भी कुन्दकुन्द आचार्य प्रसिद्ध हुआ । इनके जन्मादि विषयक ऐतिहासिक बातों का पूरा वर्णन इस ग्रन्थ के अंग्रेजी. अनुवादक श्रीमान् बाबू जगतप्रसाद जी जैन C. I. E. महोदय ने अपनी भूमिका में भली भाँति कर दिया है । यद्यपि इस ग्रंथ पर हिन्दी और संस्कृत की अनेक टीकाएं उपलब्ध हैं, तथापि भावों की अस्पष्टता और रीति की प्राचीनता के कारण आधुनिक पाठकों को अधिक रुचिकर प्रतीत नहीं हुई। इसलिए जैन साहित्य के प्रेमी और उदारचित्त श्रीमान् बाबू जगत प्रसाद जीC.I. E. जनरल सैक्रटरी अमाथाश्रम देहली की प्रेरणा से मैंने यह सरल व संक्षिप्त हिन्दी अनुवाद करने का साहस किया है । इस ग्रंथ का अनुवाद करने में मुझे श्री १०८ श्रुतसागर सूरि रचित षटपाहुड की संस्कृत टीका, पं० सूरज भान जी की हिन्दी टीका और जयपुर निवासी प. जयचन्द्र जी छावड़ा की प्राचीन हिन्दी टीका से पर्याप्त सहायता मिली है । जिसके लिये मैं उपयुक्त महानुभावों का हृदय से आभार मानता हूं। ग्रंथ की मूल गाथाओं और संस्कृत छाया का संशोधन उपयुक्त मुद्रित ग्रंथों से मिलाकर किया गया है। यद्यपि इस ग्रंथ की कोई प्राचीन हस्तलिखित शुद्ध व प्रामाणिक प्रति हमें प्राप्त न हो सकी, तथापि ग्रंथ को शुद्धतापूर्वक छपवाने का पूर्ण प्रयत्न किया गया है । प्रेस की असावधानी से जो कुछ अशुद्धियाँ रह गई हैं उनका शुद्धिपत्र ग्रन्थ के प्रारम्भ में लगा दिया गया है । आशा है कि विचारशील पाठक हमारी भूल पर ध्यान न देकर क्षमा प्रदान करेंगे और ग्रन्थ शुद्ध करके पढ़ेंगे । यदि समाज के उदारचित्त महानुभावों ने इस अनुवाद को अपनाया तो मैं अपने परिश्रम को कृतार्थ समझूगा। तथा अन्य उपयोगी ग्रन्थों का अनुवाद करने का साहस करूंगा। अन्त में समाज के विद्वानों और महानुभावों से अपनी त्रुटियों की क्षमा याचना करता हुआ मैं अपने वक्तव्य को समाप्त करता हूं-इत्यलं विस्तरेण । अक्तूबर १९४३ । समाज सेवक-- पारसदास जैन न्यायतीर्थ । लक्ष्मी प्रेस, देहली।
SR No.022411
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParasdas Jain
PublisherBharatvarshiya Anathrakshak Jain Society
Publication Year1943
Total Pages178
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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