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________________ [ १५ ] पृथक समझता हो। ३ परमात्मा-इसका व्यवहार मुक्त अर्थात् कर्म रहित प्रात्मा से है। . एक ही जीव के कभी बहिरात्म और कभी अन्तरात्म भाव होते हैं। परमात्मावस्था में जीव तथा आत्मा एक ही अर्थ के द्योतक हैं । (अध्याय ६ गाथा ४-५-६) भगवत् कुन्दकुन्द के दूसरे ग्रंथों में 'समय' शब्द भी आत्मा के लिये प्रयुक्त किया गया है । इसका प्रयोग (universal) विश्वदृष्टि से किया गया मालूम होता है, यद्यपि जैनधर्म में एक आत्मा से भिन्न कोई ब्रह्म अवस्था नहीं मानी गई। ____ जैनधर्म “अनेकान्तवाद” नाम से भी प्रख्यात है । इसका अभिप्राय है कि सत्य के अनेक दृष्टिकोण हैं और इसको अनेक दृष्टिकोण से देखना चाहिये, इसको नय विवक्षा भी कहते हैं, सामान्यतया व्यवहार और निश्चय इन्हीं २ दृष्टिकोणों पर विचार किया गया है, इनको द्रव्याथिक दृष्टिकोण भी कहा जाता है। निश्चय के भी शुद्धनिश्चय और अशुद्ध निश्चय दो भेद हैं । शुद्ध निश्चय का अर्थ सम्पूर्ण सत्यता अथवा पूर्ण होना है (२-६) इसे परमार्थिक नय भी कहते हैं। इस सिद्धान्त से स्याद्वाद का सिद्धान्त सन्निहित है, जो ज्ञेय की भिन्न अवस्थाओं को नाना दृष्टिकोणों से दर्शाता है, यद्यपि श्री कुन्दकुन्द ने इस सप्तभंगीनय का वर्णन किया है, किन्तु उन्होंने कहीं पर इसका प्रयोग नहीं किया। उपयोग शब्द (५-१४८) बार बार उस रूप में प्रयुक्त नहीं है जैसा कि श्री कुन्दकुन्द के अन्य ग्रन्थों, में उसका अनुवाद करना कठिन है। प्रोफेसर थोमस response शब्द को उसके समान मानते हैं उस समय जब इसका प्रयोग जीवित प्राणियों के लिए हो, अन्य अवस्थाओं में श्री कुन्दकुन्द ही स्वयं इसे ज्ञान और दर्शन का समानार्थक मानते हैं। कुछ अवसरों पर साधारण शब्द ken उसके अभिप्राय को बोध करा देगा । ५-१४८ गाथा में उपयोग' शब्द का दर्शन और ज्ञान के साथ उल्लेख हे और वहाँ पर उसका अनुवाद सावधानता स किया गया है। निर्वाण' शब्द आत्मा की मुक्तावस्था के लिये प्रयुक्त है, मोक्ष मुक्ति को कहते हैं । सिद्ध एक मुक्त आत्मा को, अरहंत या 'जिन' शब्द अनन्त चतुष्टय युक्त आत्मा की उस अवस्था को उद्योत करता है जो मुक्ति से पहले होती है, उस अवस्था में केवल ४ अघातिया कर्म (आयु, नाम, वेदनी और गोत्र) अवशेष रहकर अन्य सभी कर्म नष्ट हो जाते हैं, ये अघातिया कर्म भी सत्ता मात्र में रहते हैं । अरहंतों की उपासना सिद्धों से पहले की जाती है। चौबीस तीर्थङ्कर वे नियमित अरहत थे. जिन्होंन धर्म का प्रचार करने में विशेष भाग लिया था। 'साधु', 'श्रमण' अथवा 'मुनि' शब्द एक पवित्र धार्मिक और विरक्त सन्यासी के लिये प्रयुक्त होते हैं। शिक्षा देने वाले गुरु को 'उपाध्याय' तथा मुनि संघ
SR No.022411
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParasdas Jain
PublisherBharatvarshiya Anathrakshak Jain Society
Publication Year1943
Total Pages178
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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