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________________ - [ १२५ ] अर्थ-जो मनुष्य खोटे देव, खोटे धर्म और खोटे गुरू को लज्जा, भय और बड़प्पन के कारण नमस्कार करता है वह निश्चय से मिथ्यादृष्टि है ॥१२॥ गाथा- सपरावेक्खं लिंगं राई देवं अंसजंय वंदे । माणइ मिच्छादिट्ठी ण हु मण्णइ सुद्धसम्मत्तो ॥ ३॥ छाया- स्वपरापेक्षं लिंगं रागिणं देवं असंयतं वन्दे । ____ मानयति मिथ्यादृष्टिः न स्फुटं मानयति शुद्धसम्यक्त्वः ॥ १३ ॥ अर्थ- स्वयं अथवा दूसरे के आग्रह से धारण किये हुए भेष को, रागी और संयमरहित देव को "मैं नमस्कार करता हूं" ऐसा जो कहता है. अथवा उनका आदर करता है वह मिथ्यादृष्टि है। सम्यग्दृष्टी उनका श्रद्धान तथा आदर नहीं करता है ॥ ३ ॥ गाथा- सम्माइट्ठी सावय धम्मं जिणदेवदेसियं कुणदि । ____विवरीयं कुव्वंतो मिच्छादिट्ठी मुणेयव्वो ॥ १४ ॥ छाया- सम्यग्दृष्टिः श्रावकः धर्म जिनदेवदेशितं करोति । विपरीतं कुर्वन् मिथ्यादृष्टिः ज्ञातव्यः ॥१४॥ अर्थ-सम्यग्दृष्टि श्रावक जिन भगवान् के कहे हुए धर्म को धारण करता है। जो मनुष्य इससे विपरीत धर्म को धारण करता है वह मिथ्यादृष्टी जानना चाहिए ॥४॥ गाथा-मिच्छादिट्री जो सो संसारे संसरेइ सुहरहिओ। जम्मजरमरणपउरे दुक्खसहस्साउले जीवो ॥६५॥ छाया-मिथ्यादृष्टिः यः सः संसारे संसरति सुखरहितः। ___ जन्मजरामरणप्रचुरे दुःखसहस्राकुले जीवः ॥६५॥ अर्थ-जो जीव मिथ्यादृष्टि है वह जन्म, बुढ़ापा, मरण आदि हजारों दुःखों से . परिपूर्ण संसार में दुःख सहित भ्रमण करता रहता है ।। ६५॥ गाथा-सम्म गुण मिच्छ दोसो मणेण परिभाविऊण तं कुणसु। जं ते मणस्स रूच्चइ किं बहुणा पलविएणं तु ॥ १६ ॥
SR No.022411
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParasdas Jain
PublisherBharatvarshiya Anathrakshak Jain Society
Publication Year1943
Total Pages178
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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