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________________ [१२४] गाथा ते धण्णा सुकयस्था ते सूरा तेवि पंडिया मणुया। .. सम्मत्तं सिद्धियरं सिविणेवि ण मइलियं जेहिं ॥ ८ ॥ छाया-ते धन्याः सुकृतार्थाः ते शूराः तेऽपि पण्डिताः मनुजाः। सम्यक्त्वं सिद्धिकरं स्वप्ने ऽपि न मलिनितं यैः ॥८६॥ अर्थ-जिन मनुष्यों ने मुक्ति को देने वाले सम्यग्दर्शन को स्वप्न में भी मलिन नहीं किया है, वे पुरुष पुण्यवान हैं, सफल मनोरथ हैं, शूरवीर हैं और अनेक शास्त्रों को जानने वाले पण्डित हैं ॥८॥ गाथा-हिंसार हिएधम्मे अट्ठारहदोसवजिये देवे। णिग्गंथे पव्वयणे सद्दहणं होइ सम्सत्तं ॥१०॥ छाया-हिंसारहिते धर्मे अष्टादशदोषर्जितेदेवे। निम्रन्थे प्रवचने श्रद्धानं भवति सम्यक्त्वम् ॥१०॥ अर्थ-हिंसारहित धर्म में, अठारह दोष रहित देव में और मोक्ष मार्ग का उपदेश करने वाले निर्ग्रन्थ गुरू में श्रद्धान रखना सो सम्यग्दर्शन है ॥ ६॥ गाथा- जहायरूवरूव सुसंजयं सव्वसंगपरिचत्त । . . लिंगं ण परावेक्खं जो मण्णइ तस्स सम्मत्तं ॥११॥ छाया- यथाजातरूपरूपं सुसंयतं सर्वसंगपरित्यक्तम् । । . लिंगं न परापेक्षं यः मन्यते तस्य सम्यक्त्वम् ॥ ११ ॥ अर्थ- नवीन उत्पन्न हुए बालक के रूप के समान जिसका रूप है, जो उत्तम संयम सहित है, सब प्रकार की परिग्रह से रहित है और जिसमें दूसरी वस्तु की अपेक्षा (आवश्यकता) नहीं है, ऐसे निर्ग्रन्थ लिंग को जो मानता है-उसके सम्यग्दर्शन होता है ॥ १॥ गाथा- कुच्छियदेवं धम्म कुच्छियलिंगं च वंदये जो दु। लज्जाभयगारवदो मिच्छादिट्ठी हवे सो हु ॥१२॥ छाया- कुत्सितदेवं धर्म कुत्सितलिंगं च वन्दते यस्तु। . . लजाभयगारवतः मिथ्यादृष्टिः भवेत् स स्फुटम् ।। १२ ॥
SR No.022411
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParasdas Jain
PublisherBharatvarshiya Anathrakshak Jain Society
Publication Year1943
Total Pages178
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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