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________________ [ ११८] अर्थ-विषयों में मोहित हुए कुछ मूर्ख पुरुष आत्मा को जान कर भी अपने शुद्धभावों से भ्रष्ट होकर चतुर्गति रूप संसार में घूमते हैं ॥ ६७ ॥ . गाथा-जे पुण विसयविरत्ता अप्पा पाऊस भावणासहिया । छंडंति चाउरंगं तवगुणजुत्ता ण संदेहो ॥६॥ छाया-ये पुनः विषयविरक्ताः आत्मानं ज्ञात्वाभावनासहिताः । त्यजन्ति चातुरंगं तपोगुणयुक्ताः न सन्देहः ॥ ६८ ॥ अर्थ-जो मुनि विषयों से विरक्त होकर और आत्मा को जान कर बार २ उसका चिन्तवन करते हैं, वे बारह तप और मूलगुण तथा उत्तर गुणसहित होकर चतुर्गति रूप संसार को छोड़ देते हैं, इसमें कोई सन्देह नहीं है ॥ ६ ॥ गाथा-परमाणुपमाणं वा परदव्वे रदि हवेदि मोहादो। सो मूढो अण्णाणी श्रादसहावस्स विवरीओ।। ६६ ।। छाया-परगाणुप्रमाणं वा परद्रव्ये रतिर्भवति मोहात् । सः मूढः अज्ञानी अात्मस्वभावात् विपरीतः ॥ ६६ ।। अर्थ-जिस मनुष्य के मोह के कारण परद्रव्य में लेशमात्र भी राग होता है, वह मूर्ख अज्ञानी है और आत्मा के स्वभाव से विपरीत है ॥ ६ ॥ गाथा- अप्पा झायंताणं दसणसुद्धीण दिदचरित्ताणं । होदि धुदं णिव्वाणं विसएसु विरत्तचित्ताणं ॥ ७० ॥ .. छाया- आत्मानं ध्यायतां दर्शनशुद्धीनां दृढचारित्राणां । भवति ध्रुवं निर्वाणं विषयेषु विरक्तचित्तानाम् ।। ७० ।। अर्थ- विषयों से विरक्तचित्तवाले, शुद्ध सम्यग्दर्शन और दृढ़चारित्र धारण करने वाले तथा आत्मा का ध्यान करने वाले मुनियों को निश्चय से मोक्ष प्राप्त होता है ।। ७०॥ गाथा- जेण रागो परे दव्वे संसारस्स हिं कारणं । तेणावि जोइणो णिच्चं कुजा अप्पे सभावणा ॥ ७१ ।।
SR No.022411
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParasdas Jain
PublisherBharatvarshiya Anathrakshak Jain Society
Publication Year1943
Total Pages178
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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