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________________ [ ११६ ] छाया - ध्रुवसिद्धिस्तीर्थकरः चतुर्ज्ञानयुतः करोति तपश्चरणम् । ज्ञात्वा ध्रुवं कुर्यात् तपश्चरणं ज्ञानयुक्तः अपि ॥ ६० ॥ अर्थ - जिसको निश्चय से मोक्ष प्राप्त होगा और जो चार ज्ञान सहित है ऐसा तीर्थंकर भी तपश्चरण करता है। ऐसा निश्चय से जानकर ज्ञानवान् पुरुष को भी तपश्चरण करना चाहिये ॥ ६० ॥ गाथा - बाहिरलिंगे जुदो अब्भंतर लिंगरहिय परियम्मो । सो समचरित्त भट्ठो मोक्खपदविणासगो साहू ॥ ६१ ॥ छाया - बाह्य लिंगेन युतः अभ्यन्तर लिंगरहितपरिकर्मा । सः स्वकचारित्रभ्रष्टः मोक्षपथविनाशकः साधुः ॥ ६१ ॥ अर्थ - जो बाह्य लिंग (नग्नमुद्रा ) सहित है और अभ्यन्तरलिंग ( आत्मा के अनुभव) रहित होकर अंगसंस्कार करने वाला है । ऐसा साधु अपने यथाख्यात चारित्र से भ्रष्ट होकर मोक्षमार्ग का नाश करने वाला होता है ॥ ६१ ॥ गाथा - सुहेण भाविदं गाणं दुहे जादे विणस्सदि । तम्हा जहाबलं जोई अप्पा दुक्खेहिं भावए ॥ ६२ ॥ छाया - सुखेन भावितं ज्ञानं दुःखे जाते विनश्यति । तस्मात् यथाबलं योगी आत्मानं दुःखैः भावयेत् । अर्थ-सुख से उत्पन्न होने वाला ज्ञान दुःख पड़ने पर नष्ट हो जाता है। इसलिए योगी को अपनी शक्ति के अनुसार परीषह उपसर्गादि का अभ्यास करना चाहिये ॥ ६२ ॥ गाथा - आहारासारिणद्दाजयं च काऊण जिरणवरमरण । भायव्वो यिप्पा गाऊणं गुरूपसाएण ॥६३ || छाया - आहारासननिद्राजयं च कृत्वा जिनवरमतेन । ध्यातव्यः निजात्मा ज्ञात्वा गुरूप्रसादेन ॥ ६३ ॥ अर्थ — जैन सिद्धान्त के अनुसार आहार आसन और निद्रा को जीत कर तथा गुरु की कृपा से आत्मा को जान कर उसका ध्यान करना चाहिये ॥ ६३ ॥
SR No.022411
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParasdas Jain
PublisherBharatvarshiya Anathrakshak Jain Society
Publication Year1943
Total Pages178
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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