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________________ [ ८e]. काय के जीवों की रक्षा करो और पाप के छह आयतों (कारणों) का त्याग करो तथा पहले न जानी हुई आत्मभावना का चिन्तवन करो ॥१३३।। गाथा-दसविहपाणाहारो अणंतभवसायरे भमंतेण । भोयसुहकारणटुं कदो य तिविहेण सयलजीवाणं ।। १३४ ॥ छाया-दशविधप्राणाहारः अनन्तभवसागरे भ्रमता। भोगसुखकारणार्थ कृतश्चत्रिविधेन सकलजीवानाम् ।। १३४ ॥ अर्थ-हे मुनि ! अनन्त भवसागर में घूमते हुए तूने मन, वचन, कायसे भोग सम्बन्धी सुखों को पाने के लिये सम्पूर्ण त्रस और स्थावर जीवों के दश प्रकार के प्राणों का आहार किया ।। १३४ ॥ गाथा-पाणिवहेहि महाजस चउरासीलक्खजोणिमज्झम्मि । उप्पज्जंत मरंतो पत्तोसि निरंतरं दुक्खं ।। १३५॥ छाया-प्राणिवधैः महायशः । चतुरशीतिलक्षयोनिमध्ये । उत्पद्यमानः म्रियमाणः प्राप्तो ऽसि निरन्तरं दुःखम् ।। १३५ ।। अर्थ-हे महायशवाले मुनि ! तुमने जीवों की हिंसा से चौरासी लाख योनियों में ___ उत्पन्न होते और मरते हुए निरन्तर दुःख पाया है ॥ १३५॥ गाथा-जीवाणमभयदाणं देहि मुणी पाणिभूयसत्ताणं । कल्लाणसुहणिमित्तं परंपरा तिविहसुद्धीए ॥ १३६ ॥ छाया-जीवानामभयदानं देहि मुने! प्राणिभूतसत्वानाम् । कल्याणसुखनिमित्तं परम्परया त्रिविधशुद्धथा ।। १३६ ॥ अर्थ-हे मुनि ! तुम परम्परा से तीर्थंकरादि के कल्याण सम्बन्धी सुखों को पाने के लिये मन, वचन, काय की शुद्धता से सब जीवों को अभयदान दो ।।१३।। गाथा-असियसय किरियवाई अक्किरियाणं च होइ चुलसीदी। . सत्तट्ठी अण्णाणी वेणैया होति बत्तीसा ।। १३७ ॥ छाया-अशीतिशतं क्रियावादिनामक्रियाणां च भवति चतुरशीतिः। सप्तषष्टिरज्ञानिनां वैनयिकानां भवन्ति द्वात्रिंशत् ॥ १३७॥
SR No.022411
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParasdas Jain
PublisherBharatvarshiya Anathrakshak Jain Society
Publication Year1943
Total Pages178
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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