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________________ [८८] छाया-ऋद्धिमतुलां विकृतां किन्नरकिम्पुरुषामरखचरैः। तैरपि न याति मोहं जिनभावनाभावितः धीरः ॥ १३०॥ अर्थ-शुद्धसम्यक्त्वरूप भावनासहित धीर मुनि किन्नर, किम्पुरुष, कल्पवासी देव और विद्याधरों के द्वारा विक्रियारूप फैलाई हुई अनुपम (अनोखी) ऋद्धि को देखकर उनके द्वारा भी मोहित नहीं होता है ॥ १३ ॥ गाथा-किं पुण गच्छइ मोह णरसुरसुक्खाण अप्पसाराणं । जाणंतो पस्संतो चिंतंतो मोक्ख मुणिधवलो ॥ १३१ ॥ छाया-कि पुनः गच्छति मोह नरसुरसौख्यानां अल्पसाराणां । जानन् पश्यन् चिन्तयन् मोक्षं मुनिधवलः ॥ १३१ ॥ अर्थ-जो श्रेष्ठ मुनि मोक्ष को जानता है, देखता है और विचार करता है, वह क्या थोड़े सार वाले मनुष्य और देवों के सुखों में मोह को प्राप्त हो सकता है अर्थात् कभी नहीं हो सकता ।। १३१ ।। गाथा-उत्थरइ जाण जरओ रोयग्गी जा ण डहइ देहउडिं। इंदियबलं न वियलइ ताव तुमं कुणहि अप्पहियं ॥ १३२ ॥ . छाया-आक्रमते. यावन्न जरा रोगाग्निर्यावन्न दहति देहकुटीम् । इन्द्रियबलं न विगलति तावत् त्वं कुरु आत्महितम् ॥ १३२ ॥ 'अर्थ-हे मुनि । जब तक तेरा बुढ़ापा नहीं आता है और जब तक रोगरूपी अग्नि देहरूपी झोंपड़ी को नहीं जलाती है तथा इन्द्रियों का बल नहीं घटता हैं तब तक तुम आत्मा का हितसाधन करो ॥ १३२ ॥ गाथा-छज्जीव सडायदणं णिचं मणवयणकायजोएहिं । कुरू दय परिहर मुणिवर भावि अपुव्वं महासत्त ॥ १३२ ।। छाया-षड्जीवषडायतनानां नित्यं मनोवचनकाययोगैः। कुरू दयां परिहर मुनिवर ! भावय अपूर्व महासत्व !॥ १३३ ।। अर्थ हे उत्कृष्ट परिणाम के धारक मुनिवर ! तुम मन, वचन, काय से सदा छह
SR No.022411
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParasdas Jain
PublisherBharatvarshiya Anathrakshak Jain Society
Publication Year1943
Total Pages178
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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