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________________ और पद्मविजय रक्खे गये । दीक्षा लेनेके बाद ये बिलकुल विद्यारत हो गये और अपनी ज्ञान पिपासाको पूरी करनेके लिये वे कई वर्ष तक विद्याधाम काशी- बनारसमें ही रहे। इनकी अपूर्व तर्कशक्तिके कारण बनारसके पंडितोने इन्हें 'न्यायविशारद' और 'न्यायाचार्य को उपाधि दी और उनकी महातार्किकों में गिनती होने लगी। वि. सं. ११७८ में जैनपुरो अहमदाबाद शहरमें इन्हें वाचकपद-उपाध्यायपद प्रदान किया गया। उनके प्रखर पाण्डित्यके कारण लोगोंने उन्हें 'लघु हरिभद्रसूरि' का गौरवप्रद उपनाम दिया था । उपाध्यायपदकी प्राप्तिके पश्चात् २५ साल तक साहित्य और धर्मकी अविरत सेवा करके वि. सं. १७४३में गुजरातमें डभोई शहरमें आपका स्वर्गवास हुआ। अपनी संस्कृत कृतियोंका प्रारम्भ इन्हे ने 'ऐं' अक्षरसे किया है और लोकभाषाकी छोटीमोटी कृतियोंका अंत 'जश' या 'वाचक जश' शब्द से अपना नाम सूचित करके किया है। अपने ढंगके ये एक निराले प्रकाण्ड पंडित हो गये । प्रस्तुत ग्रन्थ और उसकी टीका प्रस्तुत ग्रन्थ-जैन तर्कभाषा-महोपाध्याय श्रीयशोविजयजीको तर्कविषयक एक छोटीसी कृति है, और जैसा उसके नामसे सूचित होता है, जैन न्यायके अभ्यासीको जैन तर्कशास्त्रकी परिभाषाओंसे ज्ञात करना उसका उदेश्य है। यह ग्रन्थ प्रमाण, नय और निक्षेप नामक तीन परिच्छेदोंमें विभक्त हैं। ग्रन्थके अन्तमें चार श्लोकात्मक प्रशस्ति दी गई है, उसमें ग्रन्थकार व उनके गुरु आदिका नाम होते हुए भी ग्रन्थरचनाका समय या स्थल निर्दिष्ट नहीं है। 'सूरिसम्राट् ' व 'शासनसम्राट' के नामसे विश्रुत पूज्य आचार्यवयं श्रीविजयनेमिसूरीश्वरजी महाराजके परमगुरुभक्त पट्टधर व समर्थ शास्त्रज्ञ पूज्य आचार्य महाराज श्रीविजयोदयसूरीश्वरजोने अपने गुरुभाई मु. श्रीरत्नप्रभविजयजो आदिके अध्ययनके हेतुसे, इस ग्रन्थके ऊपर 'रत्नप्रभा' नामक टीकाकी रचना की और उसका संशोधन टोकाकारके विद्वान् शिष्यरत्न पूज्य आचार्य श्रीविजयनन्दनसूरिवरने किया। इस प्रकार यह ग्रन्थ विद्वानों के करकमलोंमें सादर होता है। उपसंहार___जैन साहित्य विविध भाषामय, सर्वविषयस्पर्शी एवं विपुल है । अब भी इसके कई ग्रन्थरत्न अप्रकट ही पडे हैं । भारतीय साहित्य व संस्कृतिका यथार्थ आकलन करनेके लिये जैन साहित्यका अध्ययन नितान्त आवश्यक है । संस्कृतिके नाते हमारे विद्वान् ' निष्पक्षदृष्टि व आदरभावसे जैन साहित्यको देखें और जैन विद्वान् अपने साहित्यको सुचारु रूपमें जनताके सामने पेश करते रहें ऐसी प्रार्थनाके साथ यह प्राक्कथन समाप्त करता हुँ । ___पटेलनो माढ : मादलपुर : एलीसब्रीज । रतिलाल दीपचंद देसाई अमदावाद; वि. सं. २००७; श्रावण कृष्णा १."
SR No.022410
Book TitleJain Tark Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayodaysuri
PublisherJashwantlal Girdharlal Shah
Publication Year1951
Total Pages332
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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