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________________ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । मायाए पढमठिदी सेसे समयाहियं तु आवलियं । मायालोहगबंधो मासं सेसाण कोह आलाओ॥ २७५॥ मायायाः प्रथमस्थितौ शेषे समयाधिकं तु आवलिकां । मायालोभगबन्धः मासं शेषाणां क्रोध आलापः ॥ २७५ ॥ अर्थ-मायाकी प्रथमस्थितिमें समय अधिक आवलि शेष रहनेपर संज्वलन माया और लोभका तो मासमात्र स्थितिबन्ध होता है अन्यकर्मोंका क्रोधवत् आलाप करना । पूर्वकथित रीतिसे हीनाधिकपना लिये संख्यातहजारवर्षमात्र स्थितिबन्ध है ॥ २७५ ॥ मायदुगं संजलणगमायाए छुहदि जाव पढमठिदी। आवलितियं तु उवरिं संछुहदि हु लोहसंजलणे ॥ २७६ ॥ मायाद्विकं संज्वलनगमायायां संक्रामति यावत् प्रथमस्थितिः । आवलित्रिकं तु उपरि संक्रामति हि लोभसंज्वलने ॥ २७६ ॥ अर्थ-संज्वलनमायाकी प्रथमस्थितिमें जबतक तीन आवलि शेष रहें तबतक अपत्याख्यानप्रत्याख्यानमाया द्विकका द्रव्य संज्वलनमायामें ही संक्रमण करता है। उससे परे संक्रमणावलीमें उनका द्रव्य संज्वलनलोभमें संक्रमण करता है ॥ २७६ ॥ मायाए पढमठिदी आवलिसेसेति मायमुवसंतं । ण य णवक तत्थंतिम बंधुदया होति मायाए ॥ २७७ ॥ मायायाः प्रथमस्थितौ आवलिशेषे इति मायमुपशांतं । न च नवकं तत्रांतिमे बंधोदयौ भवतः मायायाः ॥ २७७ ॥ अर्थ-मायाकी प्रथमस्थितिमें आवलि शेष रहनेपर नवक समय प्रबद्धके विना अन्यसब मायाका द्रव्य उपशम होजाता है । और उसीसमयमें संज्वलनमायाके बन्ध वा उदयकी व्युच्छित्ति होती है ॥ २७७ ॥ से काले लोहस्स य पढमटिदिकारवेदगो होदि । तं पुण वादरलोहो माणं वा होदि णिक्खेओ ॥ २७८ ॥ स्वे काले लोभस्य च प्रथमस्थितिकारवेदको भवति । तत् पुनः बादरलोभः मानो वा भवति निक्षेपः ॥ २७८ ॥ अर्थ-मायाके उपशमके वाद संज्वलनलोभकी प्रथमस्थितिका कर्ता और भोगता होता है। वह अनिवृत्तिकरण जीव स्थूल लोभको अनुभवता हुआ बादरसांपराय कहा जाता है । उस संज्वलनलोभका द्रव्य अपकर्षणकर प्रथमस्थितिमें निक्षेपण किया जाता है उसकी विधि मानकी तरह जानना ॥ २७८॥
SR No.022409
Book TitleLabdhisara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharlal Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1916
Total Pages192
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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