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________________ ६७ लब्धिसारः। तावन्मात्रे बंधे समतीते वीसियानां अधस्तनापि । एकसदृशः मोहो असंख्यगुणहीनको भवति ॥ २३२ ॥ अर्थ-उतना संख्यातहजार स्थितिबन्ध वीत जानेपर तीनोंका पल्यका असंख्यातवां भागमात्र स्थितिबन्ध होता है वहांपर थोड़ा मोहका उससे असंख्यातगुणा वीसियाओंका उससे असंख्यातगुणा तीसियाओंका स्थितिबन्ध होता है । यहांपर विशुद्धताके होनेसे वीसियाओंसे भी मोहका घटता स्थितिबन्धरूप क्रम हुआ ॥ २३२ ॥ तेत्तियमेत्ते बंधे समतीदे वेयणीयहेहादु । तीसियघादितियाओ असंखगुणहीणया होंति ॥ २३३॥ तावन्मात्रे बंधे समतीते वेदनीयाधस्तनात् । तीसियघातित्रिका असंख्यगुणहीनका भवंति ॥ २३३ ॥ अर्थ-उतने ही स्थितिबन्धापसरण वीत जानेपर उतना ही स्थितिबन्ध होता है। उसमें से सबसे थोड़ा मोहका उससे असंख्यातगुणा वीसियाओंका उससे असंख्यातगुणा तीसियाओंमें तीन घातियोंका उससे असंख्यातगुणा वेदनीयका स्थितिबन्ध होता है । यहांपर विशेष विशुद्धताके कारण सातावेदनीयसे तीन घातिया कर्मोंका स्थितिबन्ध कम होजाता है ॥ २३३ ॥ तेत्तियमेत्ते बंधे समतीदे वीसियाण हेट्ठादु।। तीसियघादितियाओ असंखगुणहीणया होति ॥ २३४ ॥ तावन्मात्रे बंधे समतीते वीसियानामधस्तनात् । तीसियघातित्रिका असंख्यगुणहीनका भवंति ॥ २३४ ॥ अर्थ-उतने ही बंधके वीतनेपर उतना ही स्थितिबन्ध होता है। वहांपर सबसे थोड़ा मोहका उससे असंख्यातगुणा तीसियाओंका उससे असंख्यातगुणा वीसियाओंका उससे ड्योढ़ा वेदनीयका स्थितिबन्ध होता है ॥ २३४ ॥ तक्काले वेयणियं णामागोदादु साहियं होदि । इदि मोहतीसवीसियवेयणियाणं कमो जादो ॥ २३५ ॥ तत्काले वेदनीयं नामगोत्रतः साधिकं भवति । इति मोहतीसवीसियवेदनीयानां क्रमो जातः ॥ २३५ ॥ अर्थ-उस क्रमकरणकालमें नाम गोत्रसे वेदनीयका साधिक बन्ध होता है। इसप्रकार मोहतीसीयवीसिय और वेदनीयका क्रम है ऐसा जानना ॥ २३५॥ तीदे बंधसहस्से पल्लासंखेजयं तु ठिदिबंधो। तत्थ असंखेजाणं उदीरणा समयपबद्धाणं ॥ २३६ ॥
SR No.022409
Book TitleLabdhisara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharlal Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1916
Total Pages192
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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