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________________ १५४ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । क्रोधस्य च प्रथमात् मानादौ क्रोधतृतीयद्वितीयगतम् । ततः संख्येयगुणमधिकं संख्येयसंगुणितम् ॥ ५७३ ॥ • अर्थ-क्रोधकी प्रथमसंग्रहकृष्टिसे मानकी प्रथमसंग्रहमें संक्रमण द्रव्य संख्यातगुणा है, उससे लोभकी प्रथमसंग्रहकृष्टिसे क्रोधकी तीसरी संग्रहकृष्टिमें संक्रमण हुआ द्रव्य विशेष ( पत्यका असंख्यातवां भाग ) अधिक है, उसके वाद क्रोधकी प्रथमसंग्रहकृष्टिसे क्रोधकी दूसरी संग्रहकृष्टिमें संक्रमण हुआ प्रदेशसमूह संख्यातगुणा है ॥ ५७३ ॥ लोभस्स विदियकिहि वेदयमाणस्स जाव पढमठिदी। आवलितियमवसेसं आगच्छदि विदियदो तदियं ॥ ५७४ ॥ लोभस्य द्वितीयकृष्टिं वेद्यमानस्य यावत् प्रथमस्थितिः । आवलिनिकमवशेषमागच्छति द्वितीयतस्तृतीयम् ॥ ५७४ ॥ अर्थ-इसप्रकार लोभकी द्वितीयकृष्टिको वेदते हुए जीवके उसकी प्रथमस्थितिमें जबतक तीन आवलि शेष रहें तबतक दूसरीसंग्रह से तीसरी संग्रहको द्रव्य संक्रमणरूप होके प्राप्त होता है ॥ ५७४ ॥ तत्तो सुहुमं गच्छदि समयाहियआवलीयसेसाए । सवं तदियं सुहुमे णव उच्छि8 विहाय विदियं च ॥ ५७५ ॥ ततः सूक्ष्मं गच्छति समयाधिकावलीशेषायाम् । सर्वं तृतीयं सूक्ष्मे नवकमुच्छिष्टं विहाय द्वितीयं च ॥ ५७५ ॥ अर्थ-द्वितीय संग्रहकी प्रथमस्थितिमें समय अधिक आवलि शेष रहनेपर अनिवृत्तिकरणका अन्तसमय होता है वहां लोभकी तीसरी संग्रहकृष्टिका सब द्रव्य सूक्ष्मकृष्टिको प्राप्त होता है और पर्यायार्थिक नयकी अपेक्षा आगेके समयमें उच्छिष्टावलिमात्र निषेक और समयकम दो आवलिमात्र नवक समयप्रबद्ध इन दोनोंके विना अन्य सब द्वितीय संग्रहका द्रव्य सूक्ष्मकृष्टिरूप परिणमता है ऐसा जानना ॥ ५७५ ॥ लोभस्स तिघादीणं ताहे अघादीतियाण ठिदिबंधो । अंतो दु मुहुत्तस्स य दिवसस्स य होदि वरिसस्स ॥ ५७६ ॥ लोभस्य त्रिघातिनां तत्राघातित्रयाणां स्थितिबंधः । अंतस्तु मुहूर्तस्य च दिवसस्य च भवति वर्षस्य ॥ ५७६ ॥ अर्थ-अनिवृत्तिकरणके अन्तसमयमें संज्वलनलोभका जघन्यस्थितिबन्ध अन्तर्मुहूर्तमात्र है । यहांपर ही मोहबन्धकी व्युच्छित्ति होती है । तीन घातियाओंका एक दिनसे कुछ कम और तीन अघातियाओंका एक वर्षसे कुछ कम स्थितिबन्ध होता है ॥ ५७६ ॥
SR No.022409
Book TitleLabdhisara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharlal Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1916
Total Pages192
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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