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________________ १२० रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । प्रथमस्थितिमें निक्षेपण करता है और उत्कर्षण किये द्रव्यको आबाधा छोड़कर बंधरूप स्थितिमें निक्षेपण करता है ॥ ४३२ ॥ आगे संक्रमणको कहते हैं सत्त करणाणि यंतरकदपढमे ताणि मोहणीयस्स । इगिठाणियबंधुदओ तस्सव य संखवस्सठिदिबंधो ॥ ४३३॥ तस्साणुपुविसंकम लोहस्स असंकमं च संढस्स । आवेत्तकरणसंकम छावलितीदेसुदीरणदा ॥ ४३४ ॥ सप्तकरणानि अंतरकृतप्रथमे तानि मोहनीयस्य । एकस्थानिकबंधोदयौ तस्यैव च संख्यवर्षस्थितिबंधः ॥ ४३३ ॥ तस्यानुपूर्विसंक्रमं लोभस्यासंक्रमं च षंढस्य । आवृत्तकरणसंक्रमं षडावल्यतीतेषूदीरणता ॥ ४३४ ॥ अर्थ-जिसने अंतर किया ऐसे अंतरकृत जीवके प्रथमसमयमें सात करणोंका प्रारंभ होता है । उनमेंसे मोहनीयका बंध उदय केवल लतारूप एकस्थानगत हुआ ये दो करण, उसी मोहनीयका स्थितिबन्ध पल्यासंख्यातभागसे घटकर संख्यातवर्षमात्र हुआ, उन्हीं मोहप्रकृतियोंका आनुपूर्वी संक्रमण होता है, लोभका अन्यप्रकृतियोंमें संक्रमण नहीं होता, नपुंसकवेदका आवृत्तकरण संक्रम हुआ, और पूर्वकर्मों के बंध होनेवाद आवलि वीतनेपर उदीरणा होती थी अब छह आवलि वीतनेपर उदीरणा होती है । इसतरह सात करणोंका युगपत् प्रारंभ होता है ॥ ४३३ । ४३४ ॥ संछुहदि पुरिसवेदे इत्थीवेदं णउंसयं चेव । सत्तेव णोकसाए णियमा कोहम्हि संछुहदि ॥ ४३५ ॥ कोहं च छुहदि माणे माणं मायाए णियमि संछुहदि । मायं च छुहदि लोहे पडिलोमो संकमो णत्थि ॥ ४३६ ॥ संक्रामति पुरुषवेदे स्त्रीवेदं नपुंसकं चैव ।। सप्तव नोकषायान् नियमात् क्रोधे संक्रामति ॥ ४३५॥ क्रोधश्च कामति माने मानो मायायां नियमेन संक्रामति । माया च कामति लोभे प्रतिलोमः संक्रमो नास्ति ॥ ४३६ ॥ अर्थ-स्त्रीवेद और नपुंसकवेदका द्रव्य तो पुरुषवेदमें संक्रमण करता है, पुरुषवेद हास्यादि छह ऐसें सात नोकषायका द्रव्य संज्वलन क्रोधमें, क्रोधका द्रव्य मानमें, मानका द्रव्य मायामें, मायाका द्रव्य लोभमें संक्रमण करता है । अब अन्यप्रकार संक्रम नहीं होता ॥ ४३५। ४३६ ॥
SR No.022409
Book TitleLabdhisara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharlal Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1916
Total Pages192
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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