SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 135
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ लब्धिसारः। . ११९ स्थितिबंधपृथक्त्वगते मनोदाने तावत्यपि अवधिद्विकम् । लाभश्च पुनरपि श्रुतं अचक्षुभोगं पुनः चक्षुः ॥ ४२८॥ पुनरपि मतिपरिभोगं पुनरपि वीर्य क्रमेण अनुभागः । बंधेन देशघातिः पल्यासंख्यस्तु स्थितिबंधः ॥ ४२९ ॥ . अर्थ-सोलह प्रकृतियोंके संक्रमणके वाद पृथक्त्वसंख्यातहजार स्थितिकांडक वीत जानेपर मनःपर्यय ज्ञानावरण और दानांतरायका, उतने ही स्थितिकांडक वीत जानेपर अवधिज्ञानावरण अवधिदर्शनावरण और लाभांतरायका, उसीतरह श्रुतज्ञानावरण अचक्षुदर्शनावरण भोगांतरायका, उसीतरह चक्षुदर्शनावरण, उसीतरह मतिज्ञानावरण उपभोगांतरायका और उसीतरह वीर्यातरायका अनुभागबंध देशघाती होता है । इसी अवसरमें स्थितिबन्ध यथासंभव पल्यका असंख्यातवां भागमात्र ही जानना ॥ ४२८ । ४२९॥ आगे अंतरकरणको कहते हैं;- .. ठिदिखंडसहस्सगदे चदुसंजलणाण णोकसायाणं । एयटिदिखंडुक्कीरणकाले अंतरं कुणइ ॥ ४३०॥ स्थितिखंडसहस्रगते चतुःसंज्वलनानां नोकषायाणाम् । एकस्थितिखंडोत्कीरणकाले अंतरं करोति ॥ ४३०॥ ' अर्थ-देशघातीकरणसे परे संख्यातहजार स्थितिखण्ड वीत जानेपर चार संज्वलन और नव नोकषायोंका अंतर करता है यानी बीचके निषेकोंका अभाव करता है । और एक स्थितिकांडकोत्करणका जितना काल है उतने कालकर अंतरको पूर्ण करता है॥४३०॥ संजलणाणं एकं वेदाणेकं उदेदि तद्दोण्हं ।। सेसाणं पढमहिदि ठवेदि अंतोमुहुत्तमावलियं ॥ ४३१॥ संज्वलनानामेकं वेदानामेकमुदेति तद्वयोः । शेषाणां प्रथमस्थिति स्थापयति अंतर्मुहूर्तमावलिकां ॥ ४३१॥ अर्थ-संज्वलनक्रोधादिमेंसे कोई एक और तीनवेदोंमेंसे कोई एक वेद इसतरह उदयरूप दो प्रकृतियोंकी तो अंतर्मुहूर्तमात्र प्रथमस्थिति स्थापन करता है। इनके विना जिनका उदय न पायाजावे ऐसी ग्यारह प्रकृतियोंकी आवलिमात्र प्रथमस्थिति स्थापन करता है ॥ ४३१॥ ... उक्कीरिदं तु दवं संते पढमहिदिम्हि संथुहदि। .. बंधेवि य आबाधमदित्थिय उक्कट्टदे णियमा ॥ ४३२ ॥ अपकर्षितं तु द्रव्यं सत्त्वे प्रथमस्थितौ संस्थापयति । बंधेपि च आबाधामतिक्रम्योत्कर्षति नियमात् ॥ ४३२ ॥ अर्थ-उनकर्मोंके अंतररूप निषेकोंके द्रव्यको पूर्वकथितरीतिसे सत्त्वमें अपकर्षणकर
SR No.022409
Book TitleLabdhisara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharlal Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1916
Total Pages192
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy