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________________ ( ७६ ) अकस्मात् बोले जावे हों और इनकी रचना अनुमान ३००० वर्ष से हुई है। अनुमान होता है कि वैदिक ऋषियों ने सुरा पानकर उन्मत्तता से कौतुक के वशीभूत होकर जैसे प्राकृतिक पदार्थों को देवता माना है वैसेही जगत्कर्त्ता होना भी माना हो ! " विना किये कोई पदार्थ नहीं बनता इसलिये जगत् का कर्ता ईश्वर अवश्य है " ऐसा समाधान करके वेद में लिख दिया हो कि “ जगत्कर्ता ईश्वर है " और उनके अनुयायिओं ने इस बात को पीछे से पकड़ रक्खा हो तो भी आश्चर्य नहीं ! "" कितनेक महाशयों का यह मत है कि - "ईश्वर, प्रकृति, काल, आकाश और जीव के अनादि होने से इस जगत की उत्पत्ति होती है। इसका उत्तर यह है कि अब यह तीन वस्तु अनादि हैं तो फिर ईश्वर ने क्या जगत रचा ? इससे तो सब पदार्थ अनादि सिद्ध हो चुके और सब पदार्थ अनादि होने से ईश्वर का रचा जगत् कभी सिद्ध नहीं हो सकता ? ईश्वर को कर्ता मानने वालों की बहादुरी जब समझी जाय कि fear किसी पदार्थ से ईश्वर ने सृष्टि रची है यह न्याययुक्त सिद्ध करदें । यदि ईश्वर को जगत्कर्ता मानने वाले पूर्वोक्त तीन वस्तु को अनादि मानेंगे तो यह वेद वाक्य: "एतस्मादात्मन आकाशः संभूतः " झूठा होगा, क्योंकि उक्त ऋचा में उस आत्मा से आकाश की उत्पत्ति मानी है । एक जगह पर अनादि कहना और दूसरी जगह उत्पत्तिमानना यह प्रत्यक्ष विरुद्ध है । इससे यह भी आपका तर्क कल्पित है ईश्वर जगत् का कर्ता किसी युक्ति या प्रमाण से सिद्ध नहीं हो सकता । यह निःसन्देह बात है । कई महाशय अब सब प्रकार से निरुत्तर हो जाते हैं तब यह भी कह दिया करते हैं कि - " जैसा जीव कर्म करता है वैसा पाता है । परंतु शुभाशुभ कर्मों का फल देनेवाला ईश्वर है । क्योंकि कर्म
SR No.022403
Book TitleJagatkartutva Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Maharaj
PublisherMoolchand Vadilal Akola
Publication Year1909
Total Pages112
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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