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________________ ( ७५ ) यजुः और साम आकृष्ट किये और यह भी फिर उसी श्लोक में लिखा है कि तीनों वेद असल में सनातन हैं । वैदिक महाशय चाहे वेदों को सनातन माने अथवा ईश्वरकृत मानें उनकी श्रद्धा की बात है परंतु तटस्थरीत्या देखने से यह बात नहीं पाई जाती है, क्यों कि: "ताल्वादिजन्मा ननु वर्णवर्गो, वर्णात्मको वेद इति स्फुटं च । पुंसश्च ताल्वादिरतः कथं स्यादपौरुषेयोऽयमिति प्रतीतिः?” ॥१॥ (श्रीमान्-हरिभद्रसूरिः) भावार्थ-वर्ण (अक्षर) के वर्गों की सृष्टि तालु आदि स्थान से और जिह्वा के प्रयत्न से है और यह बात प्रकट है कि वेद वर्णात्मक हैं और तालु आदि स्थानप्रयत्न मनुष्य के होते हैं अतएव वेद 'अपौरुषेय' है यह प्रतीत कैसे हो? ! शब्दरूप वाणी का उच्चारण अशरीरी से नहीं हो सकता । निराकार ईश्वर मुख से बोले यह विचारशील मनुष्य कभी स्वीकार नहीं कर सकते। क्योंकि जब आकारही नहीं है तो मुख कहाँ से आया और मुख के विना उच्चारण कहाँ से हो सक्ता है क्या ईश्वर कोई इंग्रेजी बाजा है? । यदि कोई यह कहे कि ईश्वर ने ऋषियों को प्रेरणा की तो अशरीरी को प्रेरक मानना युक्तिविकल है। वेद शब्दरूप है और जो जो शब्दरूप है वह देहधारी का ही कथन हो सकता है । सत्य पूछो तो वेदों की उत्पत्ति मनुष्योंही से है। वेदों के बारे में इस ग्रंथ में जो जो वातें लिखी गई हैं उन्हें देख वेद के पक्षपाती अवश्य नाराज़ होंगे परन्तु विना प्रमाण कैसे कहें कि वेद अपौरुषेय हैं । वस्तुतः पूर्वोक्त अनेक प्रमाणों के आधार पर कह सक्ते हैं कि वेदों की सृष्टि मनुष्यों से ही है । पाश्चात्य विद्वान मोक्षमूलर आदि का आभिप्राय है कि "वेद के वचन ऐसे हैं कि जैसे अज्ञानियों के मुख से
SR No.022403
Book TitleJagatkartutva Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Maharaj
PublisherMoolchand Vadilal Akola
Publication Year1909
Total Pages112
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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