SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 93
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( ७१ ) ध्यान अधिक था, पारलौकिक की तरफ कम । यज्ञों के संबन्ध में अग्नि और सोम आदि देवताओं के लम्बे लम्बे स्तोत्रों से ऋग्वेद भरा हुआ है । बीच बीच में याज्ञिक विषयों के आ जाने से स्तोत्र-जनित रसानुभव में यद्यपि कुछ विघात होता है, तथापि जिस सादगी और जिस भक्ति भाव से पुरातन ऋषियों ने अपने विचार प्रगट किये हैं वह अवश्य 'प्रशंसनीय हैं । इन्द्र, वरुण, अग्नि, मातरिश्वन, सविता, पूषण, ऊषा आदि जितने देवताओं की स्तुति की गई है प्रायः उन सब से मतलब किसी न किसी प्राकृतिक पदार्थ से है । अर्थात् प्राकृतिक वस्तुओं और प्राकृतिक दृश्यों ही को देवता मानकर, या उन पर देवत्व का आरोप करके, उनका स्तवन किया गया है । एक ऋषि आश्चर्य पूर्वक कहता है, यह सूर्य आकाश से गिर क्यों नहीं पड़ता ? दूसरा कहता है ये तारे दिन में कहां चले जाते हैं ? तीसरे १ क्यों न प्रशंसनीय हो ! जिन्होंने अपने मतलब को (ऐहिक) ही धर्म मान रक्खा है उनके लिए बेशक प्रशंसनीय है ? परंतु न मालूम वेदविख्यात जी (कि जो वेदों के संवन्ध में घृणित और आश्चर्य जनक बातें लिख कर भी) फिर किस कारण से वैदिक ऋषियों के विचार प्रशंसनीय समझ रहे हैं ?। . २ प्राकृतिक पदार्थों को देवता समझ अथवा प्राकृतिक वस्तुओं पर देवत्व का आरोपकर स्तवन किये हैं इससे भी वैदिक ऋषियों की अज्ञता स्पष्ट झलक रही है फिर ऐसे ऋषियों के रचे ग्रन्थ कैसे सर्व मान्य हो सकते हैं ! ३ जिन वैदिक ऋषियों को वैज्ञानिक बातों का इतना भी ज्ञान नहीं था उन के रचे ग्रन्थ तत्त्वद्रष्टा कैसे हो सकते हैं ? देखिए ! यह वेदों की योग्यता । माकाश में सूर्य रहता है इस बात को भी वे अच्छी तौर से नहीं समझ सकते थे तभी तो उनकी सूर्य के संबन्ध में ऐसी कल्पना हुई होगी यदि वैदिक ऋषि तत्ववेत्ता होते तो इस बात को क्यों नहीं समझ सकते। 'प्रन्थकर्ता' । ४ क्या वैदिक ऋषियों को इतना भी मालूम नहीं था कि 'सूर्य के प्रकाश के प्रभाव से तारे नहीं दीखते' जो इतना अज्ञताभरा प्रश्न का गंभीर विचार करने लगे । ऐसे अज्ञानी अथवा अल्पज्ञानियों के रचे वेदों पर कौन बुद्धिमान् विश्वास रख सकता है।
SR No.022403
Book TitleJagatkartutva Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Maharaj
PublisherMoolchand Vadilal Akola
Publication Year1909
Total Pages112
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy