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________________ ( ३२ ) समीपतः शास्त्रविरोधभाञ्जि" ॥१॥ भावार्थ-वेद, पुराण, और स्मृतियों के कथनों से जिनका मन गर्वित हुआ हो उनसे ऐसे प्रश्न पूछे जाते हैं कि जो विचार करने के योग्य हैं। "ब्रह्माऽपि पुत्रीमवसम्वदात्मा, वृद्धोऽपि किं खां चकमे न मोहात्, पीनस्तनीभिः सह गोपिकाभिः लक्ष्मीपतिः सोऽपि चिरं चिखेल" ॥२॥ भावार्थ-देखिए ! “ब्रह्माजी ने विकारवश होकर अपनी पुत्री की ओर कुदृष्टि से देखा" यहां बिचार करने का स्थान है कि ब्रह्माजी ऐसे सृष्टिकर्ता महार्ष को अथवा ईश्वरीय अवतार को ऐसा अयोग्य कर्तव्य करना क्या उचित था ? कितने लोग इस बात को छिपाने के लिये ऐसा भी कहते हैं कि प्रजापति नाम सूर्य और सूर्य की पुत्री उषा है। वेदों में जिस जिस स्थान पर ऐसा लिखा है उस स्थान पर ऐसा समझना चाहिए कि सूर्य उषा के पीछे चलता है । हमारी ओर से वे चाहे जैसा अर्थ क्यों न करें इसमें हमारी यत्किंचित् भी क्षति नहीं है परन्तु उक्त श्लोक से क्या भावार्थ ध्वनित होता है यह पाठक समझ लें ! इधर विष्णु अथवा विष्णुअवतार फोडशकलापरिपूर्ण श्रीकृष्णजी की लीलाओं की ओर देखा जाय तो गीतगोविन्दादि काव्यों में और भागवतादि पुराण ग्रन्थों में स्पष्ट लिखा है कि गोकुल ग्राम की गोपियों के अधरामृत से और उनके उतुङ्ग स्तनकलशों को आलिङ्गन करने की क्रीडा से कृष्णजी का मन हार्षत होता था। इधर शिवजी के वृत्तान्त की ओर अवलोकन करते हैं तो स्पष्ट विदित होता है कि: “स नीलकण्ठस्त्रिपुरस्य दाहं, कोपाद्वितेने गगनस्थितस्य,
SR No.022403
Book TitleJagatkartutva Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Maharaj
PublisherMoolchand Vadilal Akola
Publication Year1909
Total Pages112
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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