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________________ अपने अपने अलग २ बना लिये हैं, तथापि अंत में वेद, उपनिषद, श्रुति, स्मृति इत्यादि ग्रंथों के ही शरण जाते हैं इसलिये उक्त पंथों को वेदानुयायी धर्म कहा जाय तो कुछ क्षति नहीं है। क्योंकि वैदिकों ने सृष्टि का कर्ता ईश्वर को माना है और उक्त पंथ वालों ने भी सृष्टि का कर्ता ईश्वर कोही माना है परंतु सृष्टि रचना के संबंध में थोड़ा बहुत परस्पर मत भेद सभी में है । वेदों में ही जब सृष्टि रचना का एक मत नहीं है ( और यह बात हम प्रथम सप्रमाण लिख भी आये हैं ) तो वेदों के अनुयायी मतों में सृष्टि निर्माण का परस्पर मत भेद हो इसमें आश्चर्य ही क्या है ? उक्त पंथों में परस्पर कितनी ही बातों का जो मत भेद है, उस ओर हम इस समय विचार करना नहीं चाहते, बल्कि हम इस जगह इस बात की विशेष जरूरत ही नहीं समझते क्योंकि यहां पर तो हम केवल जगत्कर्ता के संबन्ध में, अथवा जगत् कर्ता मानने वाले दर्शनों के संबन्ध में उचित शब्दों से ही विचार करना योग्य समझते हैं। दूसरों पर झूठा आक्षेप करना अपनी लेखनी को कलङ्कित करना है, अपशब्द लिखने से लेखक कभी बहादुर नहीं कहा जासकता, और न हम यह पद्धति पसंद करते हैं । परंतु जब जिस बात की समालोचना की जाती है तो उस बात में ( अर्थात् प्रतिपक्षी शास्त्रों में ) जो जो शब्द अथवा वाक्य आयें वे यदि कारण वश हमे लेने पड़ें तो इस बात में हम सर्वथा दोषी नहीं ठहराये जासकते, क्योंकि हम अपनी ओर से लिखें तो दोषी बनें। यदि प्रतिपक्षियों के वाक्य न लेवें तो आलोचना में त्रुटि मालूम हो इसलिए यदि ऐसी सम्हाल करने पर भी पाठकों को कहीं अनुचित मालूम हो तो क्षमा करें। जिनको सृष्टि ईश्वर रचित मानने का हठ है उनके लिये सर्वशक्तिमान ईश्वर के संबन्ध में, और ईश्वरीय अवतारों के संबन्ध में, थोड़ा लिखना उचित समझा गया है:"वेदैः पुराणैः स्मृतिभिश्च येषां, मनांसि नित्यं परिगर्वितानि । पृच्छामि संदेहपदानि तेषां,
SR No.022403
Book TitleJagatkartutva Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Maharaj
PublisherMoolchand Vadilal Akola
Publication Year1909
Total Pages112
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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