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________________ ( १७ ) कहां से आई, स्वतः दरिद्री होकर अन्य को धनाढ्य किस प्रकार कर सक्ता है ? कभी नहीं कर सक्ता । तद्वत् आपका ईश्वर भी अन्य का कलङ्क दूर नहीं कर सक्ता । ऐसे कलङ्की और अन्यायियों को ईश्वर कहनाभी अयुक्त है। अविनाशी को विनाशी, निराकार को साकार,निर्दोषी को दोषी इत्यादि संपूर्ण दोष जगत्कर्ता ईश्वर के मानने में प्राप्त होते हैं। ___कितने लोगों की यह समझ है कि सृष्टि का कर्ता कोई होना ही चाहिए क्योंकि संसार की अद्भुत रचना दिखलाई पड़ती है इसका स्वाभाविक होना असम्भव है और कर्मादि जड़ पदार्थों से जगदुत्पत्ति होना संभव नहीं है अतएव जगत् ईश्वरकृत कृत्य होना संभावित है। इसके प्रत्युत्तर में यह कहना चाहिये कि यदि आपके कथन से क्षण भर ऐसा मान भी लेवें तो ईश्वर प्राणियों का कारण हुआ और सब पदार्थ ईश्वर के कार्य हुए अतएव ईश्वर पिता और सब पदार्थ पुत्ररूप मानना पड़ेंगे यदि ईश्वर को पिता मानें तो सब पदार्थों पर ईश्वररूप पिता का प्रेम होना उचित है और सब संसार के प्राणियों को सुखी रखना पिता का धर्म है परन्तु संसार में तो अनेक दुःखी भी दिखाई पड़ते हैं, कितनेही पापी, कितनेही पुण्यवान् , कितनेही धर्मी अधर्मी, मनुष्य हैं यह किस प्रकार हो सकता है ? क्या यह बात पिता के योग्य है कि पुत्रों को दुःख दे ? यहां पर यदि कोई यह कहे कि लायक पुत्रों को सुख देता है और नालायकों को दुःखी करता है तो इसके प्रत्युत्तर में कहना चाहिये कि लायक नालायक होने की बुद्धि का दाता भी तो आप ईश्वर को ही मानते हैं फिर एक को लायक बुद्धि देना और दूसरे को नालायक बुद्धि देना यह ईश्वर के लिए कितना अनुचित है ? ईश्वर प्रवतक होकर कई जीवों को कुबुद्धि देकर नरक का भागी बना देता है और कई जीवों को सुबुद्धि देकर स्वर्ग का भागी बना देता है इसमें दुर्गति में जानेवाले जीवों ने ईश्वर की क्या हानि की थी और सुगति में जानेवालों से ईश्वर को क्या लाभ हुआ ? यदि इसका उत्तर देने को असमर्थ होते भी अपना हठ नहीं त्याग सक्ते तो धन्यवाद है आपको आपके ईश्वर हों तो ऐसेही हों।
SR No.022403
Book TitleJagatkartutva Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Maharaj
PublisherMoolchand Vadilal Akola
Publication Year1909
Total Pages112
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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