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________________ भूमिका। प्यारे पाठक-वृन्द ! इस अपार संसार के संबन्ध में कई मनुष्यों का यह मन्तव्य है कि-इस संसार का कर्ता ईश्वर अवश्य है और कई इस बात को नहीं मानते । सृष्टि ईश्वरकृत है या अनादि ? इस प्रश्न के खण्डन मण्डन में कई संस्कृत ग्रंथ भरे पड़े हैं। इधर ईश्वरवादी अपनी ओर से यह हठ पकड़कर बैठे हैं कि विना किये कोई पदार्थ ही नहीं बनता, अतएव सृष्टि का कर्ता ईश्वर अवश्य है और इधर जैन दर्शन संसार को अनादि और अकर्तृजन्य स्पष्टरूप से सिद्ध कर के बतला रहा है । यह परस्पर विरुद्ध कोटी है । अब इन दोनों में से किसका कहना सत्य है इस ओर पक्षपातरहित होकर विचार किया जाय तो अवश्यही यह कहना होगा कि आईतदर्शन का कहना सत्य है । क्यों कि जगत् को ईश्वररचित मानने से अनेक दोषापत्ति आती है और अनादि अकर्तृजन्य मानने से एक भी दोष नहीं आता, और यह बात इस ग्रन्थ में भली भाँति दिखाई गई है। सृष्टि के उत्पत्ति के संबंध में कोई ईश्वरवादी कहता है किः-जगत् का निमित्त और उपादान कारण केवल ब्रह्म ही है, तो दूसरा कहता कि ईश्वर निमित्त कारण है किन्तु उपादान कारण प्रकृति है, तो तीसरा कहता है कि दृश्यादृश्य सभी पदार्थ ईश्वररचित है, तो अन्य कहता है कि ईश्वर, जोव और प्रकृति यह तीन अनादि और अकर्तृजन्य हैं। कई तो जीव को सादि सान्त मानते हैं, और कई सादि अनन्त पकड़ कर बैठे हैं, इसी तरह कई अनादि सान्त, तो कई अनादि अनन्त, इत्यादि ईश्वरवादियों में जगत्कर्तृत्व के विषय में परस्पर बहुत सा मतभेद है। किन्तु ईश्वर, जीव और प्रकृति पदार्थ को अनादि और अकर्तृजन्य मानने से संसार स्वतः अनादि और अकर्तृजन्य सिद्ध होचुका।संसार को अनादि मानकर फिर उसका कर्ता मानना और कर्ता मानकर फिर संसार को अनादि कहना यह प्रत्यक्ष ही में विरुद्ध दिखाई देता
SR No.022403
Book TitleJagatkartutva Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Maharaj
PublisherMoolchand Vadilal Akola
Publication Year1909
Total Pages112
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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