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________________ परिशिष्टम् ] समयसारः । ५६१ भवंति जिननीतिमलंघयंतः ॥ २६५ ॥ अथास्यो पायोपेयभावश्चिंत्यते । आत्मवस्तुनो हि ज्ञानमात्रत्वेऽप्युपायोपेयभावो विद्यत एव । तस्यैकस्यापि स्वयं साधकसिद्धरूपोभयपरिणामित्वात् । तत्र यत्साधकं रूपं स उपायः । यत्सिद्धं रूपं स उपेयः । अतोऽस्यात्मनोऽनादिमिथ्यादर्शन ज्ञान चरित्रैः स्वरूपप्रच्यवनात्संसरतः सुनिश्चल परिगृहीतव्यवहारसम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रपाकप्रकर्षपरंपरया क्रमेण स्वरूपमारोप्यमाणस्यांतर्मन निश्चयसम्यग्दर्शनज्ञानचरित्रविशेषतया साधकरूपेण तथा परमप्रकर्ष मैकरिका धिरूढरत्नत्र्यातिशयप्रवृत्तसकलकर्मक्षयप्रज्वलितास्खलितविमलस्वभावभावतया सिद्धरूपेण च स्वयं परिणममानज्ञानमात्रमेकमेवोपायोपेयभावं साधयति । एवमुभयत्रापि ज्ञानमात्रस्यानन्यतया नित्यमस्खलितैकवस्तुनो निष्कंपपरिग्रहणात् तत्क्षण एव मुमुक्षूणामासंसारालब्धभूमिकानामपि भवति भूमिकालाभः । ततस्तत्र नित्यदुर्ललितास्ते स्वत एव क्रमाक्रम वृत्तानेकांतमूर्तयः साधकभावसंभवपरमप्रकर्षको टिसिद्धिभावभाजनं भवंति । ये नेमामंतर्नीतानेकांतज्ञानमात्रैकभावरूपां भूमिमुपलभंते ते नित्यमज्ञानिनो भवंतो ज्ञानमात्रभावस्य स्वरूपेणाभवनं पररूपेण भवनं पश्यंतो जानतोऽनुचरंतश्च मिथ्यादृष्टयो मिथ्यावस्तुको जो जानते हैं श्रद्धान करते हैं अनुभवते हैं उनकी प्रशंसा के लिये कलशरूप २६५ वां काव्य कहते हैं— नैकांत इत्यादि । अर्थ- वस्तु है वह अपने आप अनेकांतात्मक है ऐसें वस्तुतत्वकी व्यवस्थाको अनेकांत में प्राप्त कीगई दृष्टिसे देखते हुए सत्पुरुष हैं वे स्याद्वादकी अधिक शुद्धिको अंगीकार करके ज्ञानी होते हैं । - कैसे हुए १ जिनेश्वरदेवके स्याद्वादन्यायको उल्लंघन नहीं करते हुए । भावार्थ — जो सत्पुरुष अनेकांतमें लगायी हुई दृष्टिसे ऐसे अनेकांतरूप वस्तुतत्त्वकी मर्यादाको देखते हैं स्याद्वाद की शुद्धिको पाकर ज्ञानी होते हैं और जिनदेवके स्याद्वाद न्यायको नहीं उलंघते । स्याद्वादन्याय, जैसी वस्तु है वैसा कहता है असत्कल्पना नहीं करता । इस प्रकार स्याद्वादका अधिकार पूर्ण हुआ || अब ज्ञानमात्र भावके उपाय उपेय दो भावोंका विचार करते हैं । उपाय वह है कि जिससे पाने योग्य भाव पाये जांय उसको मोक्षमार्ग भी कहते हैं, और उपेय भाव पाने योग्य ( आदरने योग्य) भावको कहते हैं । वह आत्माका शुद्ध - सब कर्मोंसे रहित भाव है उसको मोक्ष भी कहते हैं । सो यद्यपि ज्ञानमात्र भाव एक है तो भी अनेकांत स्वरूप है उसमें स्याद्वाद से साधा हुआ उपायभाव व उपेयभाव ये दोनों भाव एकमें ही बनते हैं । उन्हीका विचार करते हैं— आत्मवस्तुके ज्ञानमात्रपना होने पर भी उपाय उपेय भाव विद्यमान ही हैं क्योंकि उस एकके भी अपने आप साधक और सिद्ध इन दोनोंरूप परिणामीपना है । आत्मा तो परिणामी है और साधकपना व सिद्धपना ये दोनों परिणाम हैं । उनमें जो साधकरूप है वह तो उपाय है और जो सिद्ध है वह उपेय है । १ मकरा एव मकरिका मर्यादा- इत्यर्थः । ७१ समय०
SR No.022398
Book Titlesamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharlal Shastri
PublisherJain Granth Uddhar Karyalay
Publication Year1919
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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