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________________ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । [ परिशिष्टम् I त्तारूपभावगतक्रियामयी क्रियाशक्तिः । प्राप्यमाणसिद्धरूपभावमयी कर्मशक्तिः । भवत्तारूपसिद्धरूपभावभविकत्वमयी कर्तृशक्तिः । भवद्भावभवन साधकतमत्वमयी करणशक्तिः । स्वयं दीयमानभावोपेयत्वमयी संप्रदानशक्तिः । उत्पादव्ययालिंगितभावापायनिरपाय धुवत्वमयी अपादानशक्तिः । भाव्यमानभावाधारत्वमयी संबंधशक्तिः । " इत्याद्यनेकनिजशक्ति सुनिर्भरोऽपि यो ज्ञानमात्रमयतां न जहाति भावः । एकं क्रमाक्रमविवर्तिविवर्तचित्रं तद्द्द्रव्यपर्ययमयं चिदिहास्ति वस्तु ॥ २६४ ॥ नैकांतसंगतशा स्वयमेव वस्तुतत्त्वव्यवस्थितिरिति प्रविलोकयतः । स्याद्वादशुद्धिमधिकामधिगम्य संतो ज्ञानी. मान-माया-लोभ-पंचेंद्रियविषयव्यापार- मनोवचनकायव्यापार - भावकर्म - द्रव्यकर्म-नो कर्म - ख्याति-पूजा - लाभ - दृष्टश्रुतानुभूतभोगाकांक्षारूपनिदान - माया - मिथ्याशल्यत्रया दिसर्वविभावपरिणामरहिहोनेमात्रमयी वह भावशक्ति उनतालीसवीं है । कारका इत्यादि । अर्थ—कारकके अनुसार होनेरूप भावमयी क्रियाशक्ति चालीसमी है । प्राप्य इत्यादि । अर्थ- पाने आता ऐसा बनाबनाया जो भाव उसमयी कर्मशक्ति इकतालीसवीं है । भक्त इत्यादि । अर्थ — होनेरूप जो सिद्ध रूपभाव उसके होनेवालेपनामयी कर्तृत्वशक्ति व्यालीसवीं है। भव इत्यादि । अर्थ — होते हुए भावके होनेमें अतिशयवान् साधकपनेमयी करणशक्ति तेतालीसवीं है । स्वयं इत्यादि । अर्थ - अपने ही कर देनेमें आवता जो भाव उसके प्राप्त होने योग्यपना पाने योग्यपनेमयी संप्रदानशक्ति चवालीसमीं है । उत्पाद इत्यादि । अर्थ- उत्पादव्ययकर स्पर्शित जो भाव उसके अपायके होनेसे नष्ट न होता ऐसा ध्रुवपना उसमयी अपादानशक्ति पैंतालीसवी है । भाव्यमान इत्यादि । अर्थ - भावनेमें आता जो भाव उसके आधार पनेमयी छयालीसवीं अधिकरण शक्ति है । खभाव इत्यादि । अर्थअपने भावमात्र स्वस्वामिपनेमयी संबंध शक्ति सैंतालीसवीं है, अपने भावोंका स्वामी आप है यह संबंध है । ऐसे सैंतालीस शक्तियों के नाम कहे । इनको आदि लेकर अनेक शक्तिकर युक्त आत्मा है तो भी ज्ञानमात्रपने को नहीं छोड़ता । अब इस अर्थका कलशरूप २६४ वां काव्य है— इत्याद्य इत्यादि । अर्थ – ऐसें ये सैंतालीस शक्तियां कह इनको आदि लेकर अनेक अपनी शक्तियोंकर अच्छीतरह भरा हुआ है तौ भी जो भाव ज्ञानमात्रमयीपनेको नहीं छोड़ता वह चैतन्य आत्मा द्रव्यपर्यायमयी इस लोक में वस्तु है । कैसा है ? क्रमरूप अक्रमरूप विशेष वर्तनेवाले जो विवर्त ( परिणमनकी विकाररूप अवस्था ) उनकर अनेक प्रकार होके प्रवर्तता है । भावार्थ – कोई जानेगा कि ज्ञानमात्र कहा हुआ वह आत्मा एक स्वरूप ही है इसतरह नहीं है । वस्तुका स्वरूप द्रव्यपर्यायमयी है । चैतन्यभी वस्तु है वह अनंतशक्तिकर भरा है सो क्रमरूप व अक्रमरूप अनेक परिणामोंके विकारोंका समूहरूप अनेकाकार होता है परंतु ज्ञान असाधारण भावको नहीं छोड़ता सब अवस्थायें परिणाम पर्यायी हैं वे ज्ञानमय हैं | अब इस अनेक स्वरूप ५६००
SR No.022398
Book Titlesamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharlal Shastri
PublisherJain Granth Uddhar Karyalay
Publication Year1919
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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