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________________ अधिकारः ५] समयसारः। २६७ सकलकर्मविमुक्तमात्मानमवाप्नोति । एष संवरप्रकारः। “निजमहिमरतानां भेदविज्ञानशक्त्या भवति नियतमेषां शुद्धमात्मोपलंभः। अचलितमखिलान्यद्रव्यदूरे स्थितानां भवति सति च तस्मिन्नक्षयः कर्ममोक्षः ॥” १८७॥ १८८॥ १८९ ॥ केन क्रमेण संवरो भवतीति चेत् ; तेसिं हेऊ भणिदा अज्झवसाणाणि सव्वदरसीहिं। मिच्छत्तं अण्णाणं अविरयभावोय जोगो य॥ १९०॥ हेउअभावे णियमा जायदि णाणिस्स आसवणिरोहो। आसवभावेण विणा जायदि कम्मस्स वि गिरोहो ॥ १९१ ॥ कम्मस्साभावेण य गोकम्माणं पि जायइ णिरोहो। णोकम्मणिरोहेण य संसारणिरोहणं होइ ॥ १९२ ॥ तेषां हेतवः भणिताः अध्यवसानानि सर्वदर्शिभिः । मिथ्यात्वमज्ञानमविरतभावश्च योगश्च ॥१९॥ हेत्वभावे नियमाजायते ज्ञानिनः आस्रवनिरोधः । आस्रवभावेन विना जायते कर्मणोऽपि निरोधः ॥ १९१॥ कर्मणोऽभावेन च नोकर्मणामपि जायते निरोधः। नोकर्मनिरोधेन च संसारनिरोधनं भवति ॥ १९२ ॥ त्मानं कर्मतापन्नं चिंतयन् निर्विकल्परूपेण ध्यायन् सन् । दसणणाणमइओ दर्शनज्ञानमयो भूत्वा । अणण्णमणो अनन्यमनाश्च लहदि लभते । कमेव, अप्पाणमेव आत्मानमेव। कथंभूतं, कम्मणिम्मुक्कं भावकर्मद्रव्यकर्मनोकर्मविमुक्तं । केन, अचिरेण स्तोककालेन । एवं केन प्रकारेण संवरो भवति, इति प्रश्ने सति विशेषपरिहारव्याख्यानमुख्यत्वेन प्राप्त होनेसे समस्त परद्रव्यमयपनेसे दूर हुआ थोड़े समयमें ही सब कर्मोंसे रहित आत्माको पाता है। यह संवरका प्रकार है। भावार्थ-जो जीव पहले तो रागद्वेष मोहसे मिले हुए शुभ अशुभ मनवचन कायके योगोंसे अपने आत्माको भेदज्ञानके बलकर चलने न दे, पीछे शुद्धदर्शन ज्ञानमय अपने स्वरूपमें निश्चल करे और फिर सब बाह्य अभ्यंतरके परिग्रहोंसे रहित होकर कर्म नोकर्मसे भिन्न अपने स्वरूपमें एकाग्र होके ध्यान करता हुआ तिष्ठता है वह थोड़े समयमें ही सब कर्मोंका नाश करता है । यह संवर होनेकी रीति है ॥ अब इस अर्थका कलशरूप काव्य कहते हैं-निज इत्यादि । अर्थ-जो पुरुष भेदविज्ञानकी शक्ति कर अपने स्वरूपकी महिमामें लीन हैं उनको नियमसे शुद्धतत्त्वकी प्राप्ति होती है, और जो उस शुद्धतत्त्वकी प्राप्ति होनेपर निश्चल होके समस्त अन्यद्रव्योंसे दूर ठहरे हुए हैं उनके अक्षय कर्मका अभाव होता है फिर कर्मका बंध नहीं होता ॥ १८७ । १८८ । १८९॥
SR No.022398
Book Titlesamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharlal Shastri
PublisherJain Granth Uddhar Karyalay
Publication Year1919
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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