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________________ समयसारः। १०५ द्यात्मकत्वव्याप्तिशून्यस्याभवतश्चापि मोक्षावस्थायां सर्वथा वर्णाद्यात्मकत्वव्याप्तिशून्यस्य भवतो वर्णाद्यात्मकत्वव्याप्तस्याभवतश्च जीवस्य वर्णादिभिः सह तादात्म्यलक्षणः संबंधो न कथंचनापि स्यात् ॥ ६१ ॥ जीवस्य वर्णादितादात्म्यदुरभिनिवेशे दोषश्चायं; जीवो चेव हि एदे सव्वे भावात्ति मण्णसे जदि हि । जीवस्साजीवस्स य णत्थि विसेसो दु दे कोई ॥ ६२॥ जीवश्चैव ह्येते सर्वे भावा इति मन्यसे यदि हि।। जीवस्याजीवस्य च नास्ति विशेषस्तु ते कश्चित् ॥ ६२ ॥ यथा वर्णादयो भावाः क्रमेण भाविताविर्भावतिरोभावाभिस्ताभिस्ताभिर्व्यक्तिभिः पुद्गलद्रव्यमनुगच्छंतः पुद्गलस्य वर्णादितादात्म्यं प्रथयति । तथा वर्णादयो भावाः क्रमेण भाविताविर्भावतिरोभावाभिस्ताभिस्ताभिर्व्यक्तिभिर्जीवमनुगच्छंतो जीवस्य वर्णादितादात्म्यं प्रथयंतीति गुणसिद्धत्वादिपर्यायैः सह यथा तादात्म्यसंबंधोस्ति तथा वा तादात्म्यसंबंधाभावादशुद्धनयेनापि न संति पुनर्वर्णादयः केपि ॥६१॥ इति वर्णादितादात्म्यनिषेधरूपेण गाथा गता । अथ जीवस्य वर्णादितादात्म्यदुराग्रहे सति दोषं दर्शयति;-जीवो चेव हि एदे सव्वे भावत्ति मण्णसे जदि हि यथानंतज्ञानाव्याबाधसुखादिगुणा एव जीवो भवति वर्णादिगुणा एव पुद्गलस्तथा जीव एव हि स्फुटमेते वर्णादयः सर्वे भावा मनसि मन्यसे यदि चेत् जीवस्साजीवस्सयणत्थि विसेसो हि दे कोई तदा किं दूषणं, विशुद्धज्ञानदर्शनस्वभावजीवस्य जडत्म्यलक्षण संबंध है । और संसारअवस्थामें कथंचित् वर्णादिस्वरूपपनेसे हुआ तथा वर्णादिकस्वरूपपनेकी व्याप्तिकर शून्य न हुआ जो जीव उसका मोक्षअवस्थामें सब तरहसे वर्णादिखरूपपनेकी व्याप्तिकर शून्य होनेसे तथा वर्णादिस्वरूपपनेकर व्याप्त न होनेसे वर्णादिभावोंकर तादात्म्यलक्षण संबंध किसीतरह भी नहीं है ॥ भावार्थ-जो वस्तु जिन भावोंकर सब अवस्थाओंमें व्यापै उसके उन भावोंकर तादात्म्यसंबंध कहा जाता है । सो वर्णादिकसे पुद्गल तो सब अवस्थाओंमें व्यापक है और जीवके संसारअवस्थामें तो वर्णादिक किसीतरह कह सकते हैं परंतु मोक्ष अवस्थामें सर्वथा ही नहीं । इसलिये जीवका वर्णादिकके साथ तादात्म्यसंबंध नहीं है ऐसा न्याय है ॥ ६१॥ ___ आगे जीवका वर्णादिकके साथ तादात्म्य ही है ऐसा मिथ्या अभिप्राय करे उसमें यह दोष है उसे कहते हैं;-वर्णादिकके साथ जीवका तादात्म्य माननेवालेको कहते हैं कि हे मिथ्याअभिप्रायवाले! [यदि हि] जो तू [इति मन्यसे ऐसा मानेगा कि [एते भावाः] ये वर्णादिक भाव [ सर्वे हि जीवा एव ] सभी जीव हैं [तु ते] तेरे मतमें [जीवस्य च अजीवस्य ] जीव और अजीवका [कश्चित् ] कुछ [विशेषः] भेद [ नास्ति ] नहीं रहेगा ॥ टीका-जैसे वर्णादिकभाव हैं वे अनुक्रमसे भाक्ति प्रगट होना उपजना और छिपना नाशहोनारूप उन उन व्यक्तियों (पर्यायों ) कर १४ समय.
SR No.022398
Book Titlesamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharlal Shastri
PublisherJain Granth Uddhar Karyalay
Publication Year1919
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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