SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 240
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अध्याय । सबोधिनी टीका। [२२३ ज्ञान चेतना है या नहीं, यदि है तो उसमें अन्य पदार्थ क्यों विषय पड़ते हैं, यदि नहीं है तो केवलियोंके कर्मचेतना तथा कर्मफलचेतनाकी असंभावनामें कौनसी चेतना कहनी चाहिये ? इस प्रश्नके उत्तरमें यही समझना चाहिये कि केवलज्ञानियोंके ज्ञानचेतना ही होती है और उसमें शुद्धात्मा विषय रहते हुए ही अन्य सकल पदार्थ विषय पड़ते हैं। शुद्धात्माको छोड़ कर केवल अन्य पदार्थ विषय नहीं पड़ते हैं। भावार्थ-किसी ज्ञान चेतनामें केवल शुद्धात्मा विषय पड़ता है और किसीमें शुद्धात्मा तथा अन्य पदार्थ दोनों ही विषय पड़ते हैं किन्तु ऐसी कोई भी उपयोगात्मक ज्ञान चेतना नहीं है कि जिसमें शुद्धात्मा विषय न पड़ता हो, . अथवा केवल अन्य पदार्थ ही विषय पड़ते हों । अन्य पदार्थोके निषेध करनेका भी हमारा यही प्रयोजन है कि शुद्धात्माको छोड़कर केवल अन्य पदार्थ ज्ञान चेतनामें विषय नहीं पड़ते हैं। यहांपर यह शंका उठाई ना सक्ती है कि जब ज्ञान चेतनामें अन्य पदार्थ भी विषय पड़ते हैं तव उसमें संक्रमणका होना भी आवश्यक है । और ऊपर ज्ञान चेननामें संक्रमणका निषेध किया गया है, सो क्यों ? इसका उत्तर यह है कि जिस ज्ञान चेतनामें अन्य पदार्थ भी विषय पड़ते हैं वे उस ज्ञान चेतनाके अस्तित्व कालमें आदिसे अन्ततक बराबर विषय रहते हैं। केवलज्ञानमें आदिसे ही शुद्धात्मा तथा अन्य पदार्थ विषय पड़ते हैं और 'अनन्तकाल तक निरन्तर बने रहते हैं, ऐसा नहीं है कि केवलज्ञानमें उत्पत्ति कालमें केवल शुद्धात्मा ही विषय पड़ता हो, पीछे विषय बढ़ते जाते हों, किन्तु आदिसे ही सर्व विषय उसमें झलकते हैं, और बराबर झलकते रहते हैं, इसी अपेक्षासे ज्ञान चेतनामें अन्य पदार्थोंके विषय रहते हुए भी संक्रमणका निषेध किया गया है । ज्ञानोपयोगकी महिमाअस्ति ज्ञानोपयोगस्य स्वभावमहिमोदयः॥ __ आत्मपरोभयाकारभावकश्च प्रदीपवत् ॥ ८६२॥ अर्थ-ज्ञानोपयोगकी यह स्वाभाविक महिमा है कि वह अपना प्रकाशक है, परका प्रकाशक है और स्व–पर दोनोंका प्रकाशक है। जिस प्रकार दीपक अपना और दूसरे पदार्थोंका प्रकाशक है उसी प्रकार ज्ञान भी अपना और दूसरे पदार्थोंका प्रकाशक है यह ज्ञानोपयोगकी स्वाभाक्कि महिमा है। उसीका खुलासानिर्विशेषाद्यथात्मानमिव ज्ञेयमवैति च । तथा मूर्तानमूर्तीश्च धर्मादीनवगच्छति ॥ ८६३ ॥ अर्थ-ज्ञान सामान्य रीतिसे जिस प्रकार अपने स्वरूपको जानता है उसी प्रकार ज्ञेय पदार्थोंको भी वह जानता है तथा ज्ञेय पदार्थोंमें मूर्त पदार्थोको और अमूर्त धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य आदि पदार्थोंको वह जानता है।
SR No.022393
Book TitlePanchadhyayi Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherGranthprakash Karyalay
Publication Year1918
Total Pages338
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy