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________________ २२२j पञ्चाध्यायी। [ दूसरी चेतना होती है । जो बात प्रत्यक्ष सिद्ध होती है वह सर्व प्रमाण सिद्ध होती है, क्योंकि प्रत्यक्ष सबमें बलवान प्रमाण है। ____ फलितार्थसिद्धमेतावतोक्तेन लब्धिर्या प्रोक्तलक्षणा। निरुपयोगरूपत्वानिर्विकल्पा स्वतोस्ति सा ॥ ८५९॥ अर्थ-उपर्युक्त कथनका यही सारांश है कि जो ज्ञानचेतनावरणकी क्षयोपशमरूप लब्धि है वह शुद्धात्मानुभव रूप उपयोगके अभावमें निर्विकल्पक अवस्थामें रहती है । भावार्थ-जैसे दाह्य पदार्थक अभावमें अग्निकी दाहक शक्तिका व्यक्त परिणमन ( कार्यरूप) कुछ भी दिखाई नहीं देता, वैसी ही अवस्था शुद्धात्मानुभवके अभावमें लब्धिरूप ज्ञानचेतनाकी समझना चाहिये । ऊपर जो कहा गया है कि सम्यक्त्वके रहते हुए उपयोगात्मक चेतना कभी होती है कभी नहीं होती किन्तु सम्यक्त्वके रहते हुए लब्धिरूप चेतना सदा बनी रहती है उसका सारांश यही है कि सम्यक्त्वके सद्भाव में स्वात्मानुभव रूप उपयोगात्मक ज्ञान हो अथवा न हो परन्तु लब्धिरूप ज्ञान अवश्य रहता है, हां इतना अवश्य है कि उपयोगके अभावमें वह लब्धिरूप ज्ञान निर्विकल्पक अवस्थामें रहता है, उस समय कार्य परिणत नहीं है। शुद्धस्यात्मोपयोगो यः स्वयं स्यात् ज्ञानचेतना। निर्विकल्पः स एवार्थादर्थासंक्रान्तसङ्गन्तेः ॥ ८६० ॥ अर्थ-शुद्धात्मानुभव रूप जो उपयोगात्मक ज्ञानचेतना है वह भी वास्तवमें निर्विकल्पक ही है, क्योंकि जितनेकाल तक शुद्धात्मानुभव होता रहता है उतने काल तक ही उपयोगात्मक ज्ञानचेतना कहलाती है, और उस कालमें शुद्धात्मासे हटकर दूसरे पदार्थोकी ओर ज्ञान जाता नहीं है इसलिये उस समय संक्रान्तिके न होनेसे उपयोगात्मक ज्ञानको भी निर्विकल्पक कहा गया है। भावार्थ-यहां पर यह शंका हो सकती है कि पहले ज्ञान चेतनाको संक्रमणात्मक कहा गया है और यहां पर उसीको असंक्रमणात्मक वा निर्विकल्पक कहा गया है, सो क्यों ? इसके उत्तरमें यह समझना चाहिये कि वहां पर दूसरे पदार्थोंसे हटकर शुद्धात्मामें लगनेकी अपेक्षासे ज्ञान चेतनाको संक्रमणात्मक कहा गया है और यहां पर ज्ञान चेतनारूप उपयोगके अस्तित्वकालमें शुद्धात्मासे हटकर पदार्थान्तरमें ज्ञानका परिणमन न होनेकी अपेक्षासे उसे असंक्रमणात्मक ( निर्विकल्पक ) कहा गया है। अस्ति प्रश्नावकाशस्य लेशमात्रोत्र केवलम् । यत्कश्चिद्वाहिरर्थे स्यादुपयोगोन्यत्रात्मनः॥ ८६१ ॥ अर्थ- यहां पर इस प्रश्नके लिये फिर भी लेश मात्र अवकाश रह जाता है कि जब ज्ञान चेतनामें शुद्धात्माको छोड़कर अन्य पदार्थ विषय पड़ते ही नहीं, तब केवलज्ञानियोंके
SR No.022393
Book TitlePanchadhyayi Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherGranthprakash Karyalay
Publication Year1918
Total Pages338
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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