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________________ १९८] पञ्च । [ दूसरो I I तेरहवें गुणस्थान में हो जाती है। जहांपर रत्नत्रय की पूर्णता है वहां पर ही मोक्षका होना आवश्यक है, अन्यथा रत्नत्रयमें x समर्थकारणता ही नहीं आ सक्ती है । तीनों की पूर्तिके उत्तर क्षण में ही मोक्ष प्राप्तिका होना अवश्यंभावी है सो होती नहीं किन्तु मोक्षप्राप्ति चौदहवे गुणस्थानमें होती है इससे सिद्ध होता है कि अभी तक चारित्रकी पूर्णता में कुछ अवश्य त्रुटि है, और चारित्र ही मोक्ष प्राप्ति में साक्षात् कारण कहा गया है । वह त्रुटि भी आनुषङ्गिक है* वह इस प्रकार है - जिस प्रकार आत्माका चारित्र गुण है उसी प्रकार योग भी आत्माका गुण है | चारित्र गुण निर्जराका हेतु है परन्तु योग गुण मन, वचन, कायरूप अशुद्धावस्था में कर्मको ग्रहण करनेका हेतु है । दशवे गुणस्थान तक चारित्र योगके साथ ही अपूर्ण बना रहा है, दशर्वेके अन्तमें यद्यपि चारित्रमोहनीय के दूर हो जानेसे वह पूर्ण हो चुका है तथापि उसको अशुद्ध करने में कारणीभूत उसका साथी योग अभी तक अपना कार्य कर रहा है । इसलिये चारित्र निर्दोष होनेपर भी योगके साहचर्य से उसे भी आनुषङ्गिक दोषी बनना पड़ता है यद्यपि कर्मको ग्रहण करनेवाला योग चारित्र में कुछ मलिनता नहीं कर सकता है तथापि चारित्र और योग दोनों ही आत्मासे अभिन्न हैं । अभिन्नता में जिस प्रकार योगसे आत्मा अशुद्ध समझा जाता है उसी प्रकार चारित्र भी समझा जाता है । जब योगशक्ति वैभाविक अवस्था से मुक्त होकर शुद्धावस्था में आजाती है तभी चारित्र भी आनुषङ्गिक दोषसे मुक्त हो जाता है। इसीलिये शास्त्रकारों ने यथाख्यात चारित्रकी पूर्णता चौदहवें गुणस्थान में बतलाई है वहींपर परमावगाढ़ सम्यक्त्व भी बतलाया है। इसलिये चौदहवें गुणस्थानमें ही रत्नत्रयकी पूर्णता होती है और वहीं पर मोक्षप्राप्ति होती है । इससे रत्नत्रयमें समर्थ कारणता भी सिद्ध होजाती है । इतने सब कथनका सारांश यही है कि सम्यग्ज्ञानके होनेपर भी सम्यक्चारित्र भजनीय है । सम्यक् चारित्र के होनेपर सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान भजनीय नहीं हैं । किन्तु अवश्यंभावी हैं । क्योंकि विना पहले दोनोंके हुए सम्यक्चारित्र हो ही नहीं सक्ता है । इसीलिये ग्रन्थकारने सम्यक्त्व और ज्ञानको चारित्रके अन्तर्गत बतलाया है । जिस प्रकार चारित्रमें दोनों गर्भित हैं उसी प्रकार सम्यग्ज्ञान में सम्यग्दर्शन भी गर्मित है। * कारण दो प्रकारका होता है-एक समर्थ कारण एक असमर्थ कारण । जिसके होनेपर उत्तर क्षण में अवश्य ही कार्यकी सिद्धि हो उसे समर्थ कारण कहते हैं । और जिस कारण - के होनेपर नियमसे उत्तर क्षण में कार्य न हो उसे असमर्थ कारण कहते हैं 1 आता है उसे आनुषङ्गिक दोष चोरोंके सहवास में रहे तो वह भी * स्वयं दोषी न होने पर भी जो साहचर्यवश दोष 1 कहते हैं । जैसे कोई पुरुष स्वयं तो चोर न हो परन्तु आनुषङ्गिक दोषी ठहराया जाता है।
SR No.022393
Book TitlePanchadhyayi Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherGranthprakash Karyalay
Publication Year1918
Total Pages338
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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