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________________ अध्याय। सुबोधिनी टीका। एक समयसे लेकर छह आवलि काल बाकी रह जाता है उस समय अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभमेंसे किसी एकका उदय होनेपर सम्यक्त्वका नाश हो जाता है और द्वितीय गुणस्थान हो जाता है सम्यग्दर्शनके साथ ही स्वरूपाचरण चारित्र भी नष्ट हो जाता है क्योंकि उसका भी साक्षात् घातक अनन्तानुबन्धी है। उपर्युक्त कथनसे यह वात भी सिद्ध होजाती है कि जब स्वरूपाचरण चारित्र और सम्यग्ज्ञान दोनों ही सम्यग्दर्शनके साथ होने वाले हैं तो तीनों ही अविनाभावी हैं इसीलिये ग्रन्थकारने तीनोंको अविनाभावी बतलाए हुए तीनोंको अखण्डित कहा है । परन्तु सम्पग्दर्शनका अविनाभावी स्वरूपाचरण चारित्र ही है, क्रियारूप चारित्र नहीं है। क्योंकि क्रिया रूप चारित्र पांचवें गुणस्थानसे प्रारंभ होता है। इसीसे पहले यह भी कहा गया है कि सम्यग्ज्ञानके होनेपर सम्यकुचारित्र भजनीय है । अर्थात् सम्यग्ज्ञानके होनेपर सम्यक्चारित्र हो भी अथवा नहीं भी हो, नियम नहीं है । यहांपर एक शंका उपस्थित होती है वह यह है कि जिस प्रकार सम्यग्दर्शनके साथ सम्यग्ज्ञानका अविनाभाव होनेपर ही उत्तरोत्तर वृद्धिकी अपेक्षासे ज्ञान भजनीय है । उसी प्रकार सम्यग्ज्ञानके होनेपर सम्यक्चारित्र भजनीय नहीं होना चाहिये क्योंकि सम्यक्चारित्रकी पूर्ति बारहवें गुणस्थानमें ही होजाती है और सम्परज्ञानकी पूर्ति तेरहवें गुणस्थानके प्रारंभमें होती है, इसका भी कारण यही है कि चारित्र गुणको घात करनेवाली चारित्र मोहनीय कषाय दशवें गुणस्थानके अन्तमें सर्वथा नष्ट होजाती हैं और केवलज्ञानको घात करनेवाला ज्ञानावरणीय कर्म बारहवेंके अन्तमें नष्ट होता है। इस कथनसे तो यह बात सिद्ध होती है कि सम्यक्चारित्रके होनेपर सम्यग्ज्ञान भजनीय है और ऊपर कहा गया है कि ज्ञानके होनेपर चारित्र भजनीय है परन्तु इस शंकाका उत्तर इस प्रकार है कि यद्यपि स्थूल दृष्टिसे यह शंका ठीक प्रतीत होती है परन्तु सूक्ष्मदृष्टिसे विचार करने पर वही कथन सिद्ध होता है जो ऊपर कहा जाचुका है अर्थात् सम्यग्ज्ञानके होनेपर सम्यक्चारित्र ही भननीय रहता है । इसका खुलासा इस प्रकार है कि यद्यपि चारित्र मोहनीय कर्मके नष्ट होनेपर बारहवें गुणस्थानमें यथाख्यातचारित्र प्रकट होजाता है तथापि एक दृष्टिसे उसे अभी पूर्ण चारित्र नहीं कहा जा सकता है, यदि कहा जाय कि चारित्र मोहनीय उसका घातक था जब घातक कर्म ही नष्ट हो गया तो फिर क्यों नहीं पूर्ण चारित्र कहा जाता है अथवा तब भी पूर्ण चारित्र नहीं कहा जाता है तो कहना चाहिये कि और भी कोई कर्म चारित्रका घातक होगा जो कि चारित्रकी पूर्णतामें बाधक है ? तर्कणा ठीक है, परन्तु विपक्षमें दूसरी तर्कणाएँ उठाई जा सक्ती हैं कि यदि चारित्र मोहनीयके नष्ट होनेपर चारित्र पूर्ण हो जाता है तो तेरहवें गुणास्थानमें ही क्यों नहीं मोक्ष हो जाती ? क्योंकि सम्यग्दर्शनकी पूर्ति सातवें तक हो चुकी और चारित्रकी पूर्ति बारहवेंमें हो जाती है तथा ज्ञानकी पूर्ति
SR No.022393
Book TitlePanchadhyayi Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherGranthprakash Karyalay
Publication Year1918
Total Pages338
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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