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________________ अध्याय । सुबोधिनी टीका। किया जाता है । परन्तु अष्ट मूलगुणोंको पालन करनेके कई प्रकार देखे जाते हैं। किन्हीं २ के यहां तो स्वभावसे ही मांसादिकका सेवन नहीं होता है, अर्थात् कोई २ मांसादिकके सेवनसे स्वभावसे ही घृणा प्रकट करते हैं और किन्हीं २ के यहां कुलपरम्परासे मांसादिकका ग्रहण नहीं किया जाता है, ऐसे घरानोंमें अष्ट मूलगुणोंका नियम बड़ी सुगमतासे कराया जा सकता है, परन्तु जिनके यहां कुलाम्नाय अथवा स्वभावसे मांसादिकका त्याग नहीं है उनको सम्यक्त्व प्राप्तिके समय मांसादिकके छोड़नेके लिये विशेष प्रयत्न करना पड़ता हैं परन्तु यह बात जैनेतर पुरुषोंमें ही पाई जाती है, जैन कहलानेवाले पुरुषोंके तो नियमसे स्वभाव और कुलाम्नायसे अष्ट मूल गुणोंका पालन होता ही चला आता है । उनके पालनेके लिये उन्हें किसी प्रकारका यत्न नहीं करना पड़ता है, विना अष्ट मूल गुणोंके पालन किये पाक्षिक जैन भी नहीं कहा जा सकता है । और न उसके सम्यक्त्व तथा व्रत ही हो सकता है। ___ अष्ट मूल गुणों का पालन जैन मात्रके लिये आवश्यक है- एतावता विनाप्येष श्रावको नास्ति नामतः। किं पुनः पाक्षिको गूढो नैष्ठिकः साधकोथवा ॥ ७२५ ॥ अर्थ--इतना किये विना अर्थात् अष्ट मूल गुण धारण किये विना नाम मात्र भी श्रावक नहीं कहा जाता है, फिर पाक्षिक, गूढ, नैष्ठिक, अथवा साधककी तो बात ही क्या है ? _ अष्टमूल गुण--- मद्यमांसमधुत्यागी त्यक्तोदुम्बर पञ्चकः । नामतः श्रावकः क्षान्तो नान्यथापि तथा गृही॥ ७२६ ॥ अर्थ-मदिरा, मांस, मधु (शहत) का त्याग करनेवाला तथा पांच उदुम्बर फलों का त्याग करनेवाला नाम मात्रका श्रावक कहा जाता है, वही क्षना धर्मका पालक है अन्यथा वह श्रावक नहीं कहा जासकता है। भावार्थ-जो केवल श्रावक संज्ञाको धारण करता है उसे भी तीन मकार और पांच फलोंका त्यागी होना चाहिये, जो इनका भी त्यागी नहीं है उसे जैन ही नहीं कहना चाहिये । इन्हीं आठोंके त्यागको अट मूल गुण कहते हैं। सप्तव्यसनके त्यागका उपदेशयथाशक्ति विधातव्यं गृहस्थैर्व्यसनोज्झनम् । अवश्यं तद्वतस्थैस्तैरिच्छद्भिः श्रेयसी क्रियाम् ॥ ७२७ ॥ अर्थ-गृहस्थों (अवती) को यथाशक्ति सप्तव्यसनका त्याग करना चाहिये और जो व्रतोंका पालन करते हैं तथा शुभ क्रियाओंको चाहते हैं उन गृहस्थोंको तो अवश्य ही सप्तव्यसनका त्याग करना चाहिये । भावार्थ-यहांपर सप्त व्यसनके आवश्यक त्यागका उपदेश * द्यूतमांससुराश्याखटचौर्यपराङ्गनाः महापापानि सप्तैतद्व्यसनानि त्यजेद्बुधः । अर्थात् जूआ खेलना, मांस खाना, मदिरा पीना, वेश्याके यहां जाना, शिकार खेलना, चोरी करना, परस्त्रीके यहां जाना इन सात व्यसनोंको बुद्धिमान् छोड़ दे । .
SR No.022393
Book TitlePanchadhyayi Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherGranthprakash Karyalay
Publication Year1918
Total Pages338
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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