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________________ AMAnnx.AARAAAAAAAAAANAvvv — पश्चाध्यायी। (दूसरी अर्थ-हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और सम्पूर्ण परिग्रहका एकदेश त्याग करना गृ. हस्योंका अणुव्रत कहा गया है। __ महाव्रतका स्वरूपसर्वतो विरतिस्तेषां हिंसादीनां व्रतं महत् । नैतत्सागारिभिः कर्तुं शक्यते लिङ्गमहताम् ॥ ७२१॥ अर्थ-उन्ही हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और सम्पूर्ण परिग्रहका सर्वथा ( मन वचन काय कृत कारित अनुमोदनापूर्वक ) त्याग करना महाव्रत कहलाता है। यह महाव्रत गृहस्थोंसे नहीं किया जा सकता है, किन्तु पूज्य-मुनियोंका यह चिन्ह ( स्वरूप ) है। गृहस्थ और मुनियोंमें भेदमूलोत्तरगुणाः सन्ति देशतो वेश्मवर्तिनाम् । तथाऽनगारिणां न स्युः सर्वतः स्युः परेप्यतः ॥ ७२२॥ अर्थ- मूलगुण और उत्तरगुणोंको गृहस्थ एकदेशरूपसे पालन करते हैं, मुनि वैसा नहीं करते हैं कि तु वे उनको सम्पूर्णतासे पालन करते हैं । मुनियोंके उत्तरगुणोंका पालन भी सम्पूर्णतासे होता है। ___ गृहस्थोंके मूलगुणतत्र मूलगुणाश्चाष्टौ गृहिणां व्रतधारिणाम् ।। कचिवतिनां साक्षात् सर्वसाधारणा इमे ॥ ७२३ ॥ अर्थ-व्रत धारण करनेवाले गृहस्थियोंके आठ मूलगुण कहे गये हैं। ये आठ मूलगुण अवतियोंके भी पाये जाते हैं, ये मूलगुण सवोंके साधारण रीतिसे पाये जाते हैं। भावार्थ-सबसे जघन्य पाक्षिक श्रावक होता है उसके भी इन अष्ट मूलगुणोंका होना आवश्यक है, विना इनके पालन किये श्रावक संज्ञा ही नहीं कही जा सकती, इसीलिये इनको सर्वसाधारण गुण कहा गया है । इतना विशेष समझ लेना चाहिये कि व्रतीश्रावकोंके निरतिचार मूलगुण होते हैं और अव्रतीके सातिचार होते हैं । इसी आशयसे व्रती अवतीका भेद किया गया है । इसीका स्पष्ट विवेचन नीचे किया जाता है ___अष्ट मूलगुणोंका प्रवाहनिसर्गादा कुलाम्नायादायातास्ते गुणाः स्फुटम् । तद्विना न व्रतं यावत्सम्यक्त्वं च तथाङ्गिनाम् ॥ ७२४ ॥ अर्थ-ये अष्ट मूल या तो कुल परम्परासे ही पलते चले आते हैं, या स्वभावसे ही नियमसे पलते चले आते हैं। विनाअष्टमूल गुणोंके पालन किये कोई व्रत नहीं हो सकता है और न जीवोंके सम्यग्दर्शन ही हो सकता है। भावार्थ-व्रतोंका पालन करनेके लिये तो नियम मर्यादा आदिका प्रारंभ .
SR No.022393
Book TitlePanchadhyayi Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherGranthprakash Karyalay
Publication Year1918
Total Pages338
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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