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________________ पञ्चाध्यायी। [ दूसरा परन्तु पर्याय दृष्टिसे वस्तुका नाश हो जाता है क्योंकि पर्याय सदा एकसी नहीं रहतीं उत्तरोत्तर बदलती रहती हैं। द्रव्यपर्यायकी अपेक्षासे ही वस्तु कथंचित् नित्य और कथंचित अनित्य है। सामान्य विशेषमें अंतरबहुव्यापकमेवैतत् सामान्य सदृशत्वतः अस्त्यल्पव्यापको यस्तु विशेषः सदृशेतरः॥२॥ अर्थ-सामान्य बहुत वस्तुओंमें रहता है । क्योंकि अनेक वस्तुओंमें रहनेवाले समान धर्मको ही सामाम्य कहते हैं। विशेष बहुत वस्तुओंमें नहीं रहता, किंतु खास२ वस्तुओंमें जुदा जुदा रहता है । जो बहुत देशमें रहे उसे व्यापक कहते हैं और जो थोड़े देशमें रहे उसे व्याप्य कहते हैं । सामान्य व्यापक है और विशेष व्याप्य है। भावार्थ-सामान्य दो प्रकारका है । एक तिर्यक् सामान्य, दूसरा ऊर्ध्वता सामान्य । वस्तुओंके समान परिणाम (आकार) को ही तिर्यक् सामान्य कहते हैं । जिस प्रकार काली, पीली, नीली, सफेद, चितकवरी, खण्डी, मुण्डी आदि सभी तरहकी गौओंमें सबका एकसा ही गौरूपी परिणमन है इसलिये सभीको गौ कहते हैं। वास्तवमें देखा जाय तो काली गौका परिणमन कालीमें ही है। पीलीका पीलीमें ही है । इसीतरह सभी गौओंका परिणमन जुदा जुदा है । परन्तु जुदा जुदा होनेपर भी समान है इसलिये उस समानताके कारण सबोंको गौ शब्दसे पुकारते हैं । इसीका नाम गोत्व सामान्य है। समान परिणामको छोड़कर गोत्व जाति और कोई वस्तु नहीं है। पूर्व और उत्तर पर्यायमें रहनेवाले द्रव्यको ऊर्ध्वता सामान्य कहते हैं । जिस प्रकार कि एक मिट्टीके घड़ेको फोड़ देनेसे उसके दो टुकड़े हो जाते हैं। फिर छोटे छोटे "अनेक टुकड़े हो जाते हैं ? उन टुकड़ोंकी धूलि हो जाती है। इसी प्रकार और भी कई अवस्थायें हो जाती हैं परन्तु मिट्टी सब अवस्थाओंमें पाई जाती है। इस श्लोकमें “ सदृशत्वतः " ऐसा जो सामान्यकी व्यापकतामें हेतु दिया है वह नैयायिक दर्शनमें मानी हुई सामान्य जातिका निराकरण करता है। नैयायिकोंने सामान्य जातिको एक स्वतंत्र पदार्थ माना है उसे नित्य और व्यापक भी माना है, वे लोग सामान्यको दो प्रकारसे मानते हैं। एक महासत्ता, दूसरी अवान्तर (अंतर्गत) सत्ता। महासत्ता द्रव्य गुण कर्म तीनोंमें रहती है अवान्तर सत्तायें बहुतसी हैं। संसारभरके सभी घटोंमें एक ही घटत्व जाति है और वह नित्य है ऐसा उनका सिद्धांत है परन्तु यह सिद्धांत युक्त नहीं है। यदि सभी घटोंमें एक ही घटत्व जाति मानी जाय तो वह रस्सीकी तरह एकरूपसे सर्वत्र कैलेगी, ऐसी अवस्थामें जहां घट नहीं है वहां भी वह पाई जायगी और उसके संबंधसे
SR No.022393
Book TitlePanchadhyayi Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherGranthprakash Karyalay
Publication Year1918
Total Pages338
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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