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________________ ॐ नमः सिद्धेभ्यः । सुबोधिनी हिंदी भाषाटीका सहित पञ्चाध्यायी | उत्तरार्द्ध वा दूसरा अध्याय- सामान्य सद्गुण द्रव्य पर्यय व्ययोत्पादन धौव्यकी, व्यवहार निश्चय नय -कथनकी अनेकांत प्रमाणकी । अतिविशदव्याख्या हो चुकी पूर्वार्द्ध में अब ध्यान से, सम्यक्त्वकी व्याख्या पढ़ो भव हरो सम्यग्ज्ञानसे | सिद्धं विशेषवद्वस्तु सत्सामान्यं स्वतो यथा । नासिडो धातुसंज्ञोपि कश्चित् पीतः सिलोऽपरः ॥ १ ॥ अर्थ - जिस प्रकार वस्तुका सामान्य धर्म स्वयं सिद्ध है उसी प्रकार वस्तुका विशेष धर्म भी स्वतः सिद्ध है । जिसमें सामान्य धर्म पाया जाता है उसीमें विशेष धर्मे भी पाया जाता है यह बात सिद्ध नहीं हैं। जिस प्रकार किसी वस्तुकी "धातु" संज्ञा रखदी जाती है। यह तो सामान्य है, चांदी भी धातु कहलाती है, सोना भी धातु कहलाता है इसलिये धातु शब्द तो सामान्य है परन्तु कोई धातु पीली है और कोई सफेद है । यह पीले और सफेदका जो कथन है वह विशेषकी अपेक्षासे है । भावार्थ-संसार में जितने पदार्थ हैं सभीमें सामान्य धर्म भी पाया जाता है और विशेष धर्म भी पाया जाता है । वस्तुको केवल सामान्य धर्मवाली मानना अथवा केवल विशेष धर्मवाली मानना यह मिथ्यात्व है । यदि सामान्य तथा विशेष दोनों रूपोंसे भी वस्तुका स्वरूप माना जाय, परन्तु निरपेक्ष माना जाय, तो वह भी मिथ्या ही है । इसलिये परस्पर में एक दूसरेकी अपेक्षा लिये हुए सामान्य विशेषात्मक उभयस्वरूप ही वस्तु है । इसी बातको प्रमाणका विषय बतलाते हुए स्वामी माणिक्यनंदि आचार्यने भी कहा है कि “ सामान्यविशेषात्मा तदर्थो विषयः " इसका आशय यह है कि द्रव्य पर्याय स्वरूप उभयात्मक ( सामान्य विशेषात्मक ) ही वस्तु प्रमाणका विषय है केवल द्रव्य रूप या केवल पर्याय रूप नयका विषय है और वह नय वस्तुके एक देशको विषय करता है । प्रमाण सम्पूर्ण वस्तुको विषय करता है, इसलिये वस्तुका पूर्ण रूप द्रव्य पर्यायात्मक है । इसी कारण द्रव्य दृष्टि वस्तु सदा रहती है उसका कभी नाश नहीं होता
SR No.022393
Book TitlePanchadhyayi Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherGranthprakash Karyalay
Publication Year1918
Total Pages338
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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