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________________ अध्याय। सुबोधिनी टीका। [१५९ - wwwmvarPvrrnvr दृष्टान्तप्रदीपानामनेकत्वं न प्रदीपत्त्वहानये । यतोऽत्रैकविधत्वं स्यान्न स्यान्नानाप्रकारता ॥ ६१३ ॥ अर्थ-जिस प्रकार दीपकोंकी अनेक संख्या भी दीपत्त्व बुद्धिको दूर नहीं करसक्ती है ? उसी प्रकार देवोंकी अनेक संख्या भी देवत्व बुद्धिको दूर नहीं कर सक्ती है । क्योंकि सभी दीपोंमें और सभी देवोंमें दीपत्व गुण और देवत्व गुण एकसा ही है । वास्तवमें अनेक प्रकारता नहीं है । अर्थात् वास्तवमें भेद नहीं है, न चाशंक्यं यथासंख्यं नामतोऽस्यास्त्यनंतधा। न्यायादेकं गुणं चैकं प्रत्येकं नाम चैककम् ॥ ६१४ ॥ अर्थ-क्रमसे उसके अनन्त नाम हैं ऐसी भी आशंका नहीं करना चाहिये क्योंकि वास्तवमें एक गुणकी अपेक्षा एक नाम कहा जाता है। नयतः सर्वतो मुख्यसंख्या तस्यैव संभवात् । अधिकस्य ततो वाच्यं व्यवहारस्य दर्शनात् ॥ ६१५ ॥ अर्थ-सबसे अधिक संख्या गुणकी अपेक्षासे ही होसक्ती है। परन्तु यह सब कथन भयकी अपेक्षासे है । इसलिये जैसा जैसा अधिक व्यवहार दीखता जाय उसी २ तरहसे नाम लेना चाहिये। वृद्धैः प्रोक्तमतःसूत्रे तत्त्वं वागतिशायि यत् । द्वादशाडाइन्वायं वा श्रुतं स्थूलार्थगोचरम् ॥६१६ ॥ अर्थ-इसीलिये वृद्ध (ज्ञानवृद्ध-आचार्य ) पुरुषोंने सूत्रद्वारा तत्त्वको बचनके अगम्य बतलाया है । जो द्वादशाङ्ग अथवा आबाह्य श्रुतज्ञान है, वह केवल स्थूल-पदार्थको विषय करनेवाला है। सिद्धोंके आठ गुणकृत्स्नकर्मक्षयाज्ज्ञानं क्षायिकं दर्शनं पुनः । अत्यक्षं सुखमात्मोत्थं वीर्यञ्चेति चतुष्टयम् ।। ६१७ ।। सम्यक्त्वं चैव सूक्ष्मत्वमव्यावाधगुणः स्वतः। अस्त्यगुरुलघुत्वं च सिद्धेचाष्टगुणाः स्मृताः ॥ ६१८ ॥ अर्थ---सम्पूर्ण कर्माके क्षय होनेसे क्षायिक ज्ञान, क्षायिक दर्शन, अतीन्द्रिय सुख, आत्मासे उत्पन्न वीर्य, इस प्रकार चतुष्टय तो यह, और सम्यक्त्व, सूक्ष्मत्त्व, अव्यावाधगुण, तथा अगुरुलघुत्त्व, ये आकं स्वाभाविक गुण सिद्धदेवके हैं। इत्याद्यनन्तधर्मात्यो कर्माष्टकविवर्जितः । मुक्तोऽष्टादशभिर्दोषैर्देवः सेव्यो न चेतरः ॥ ६१९॥ .
SR No.022393
Book TitlePanchadhyayi Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherGranthprakash Karyalay
Publication Year1918
Total Pages338
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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