SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 173
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १५६] पञ्चाध्यायी । 1. दूसर है और योगका नाश करनेवाली है । खोटे कर्मके उदयसे कोई २ पुरुष इस लोकरूढिको छोड़ भी नहीं सकते हैं । देवमूढ़ता अदेवे देवबुद्धिः स्यादधर्मे धर्मधीरिह । अगुरौ गुरुबुद्धिर्याख्याता देवादिमूढ़ता ॥ ५९५ ।। अर्थ - अदेव में देवबुद्धिका होना, अधर्म में धर्मबुद्धिका होना, अगुरुमें गुरुबुद्धिका होना ही देवमूढ़ता कही गई है । लोकमूढ़ता कुदेवाराधनं कुर्यादैहिकश्रेय से कुधीः । मृषालोकोपचारत्वादश्रेया लोकमूढ़ता ॥ ५९६ ॥ अर्थ - मिथ्यादृष्टि सांसारिक सुखके लिये कुदेवों का आराधन -पूजन करता है । ऐसा करना मिया लोकाचार है, इसी का नाम लोकमूढ़ता है, लोम्मूढ़ता महा-अहितकर है। अस्ति श्रद्धानमेकेषां लोकमूढ़वशादिह । धनधान्यप्रदा नूनं सम्यगाराधिताऽम्बिका ॥ ५९७ ॥ अर्थ —- लोकमूढ़तावश किन्हीं २ पुरुषोंको ऐसा श्रद्धान हो रहा है कि भले प्रकार आराधना की हुई अम्बिका देवी ( चण्डी-मुण्डी आदि ) निश्चयसे धन धान्य- सम्पत्तियों को देवेगी | अपरेऽपि यथाकामं देवमिच्छन्ति दुर्धियः । सदोषानपि निर्दोषानिव प्रज्ञाऽपराधतः ॥ ५९८ ॥ अर्थ — और भी बहुतसे मिथ्या - बुद्धिवाले पुरुष इच्छानुसार देवोंको मानते हैं । बुद्धि दोष ( अज्ञानता ) से सदोषियों को भी निर्दोषीकी तरह मान बैठते हैं । नोक्तस्तेषां समुद्देशः प्रसङ्गादपि सङ्गतः । लब्धवर्णो न कुर्याद्वै निःसारं ग्रन्थविस्तरम् ॥ ५९९ ।। अर्थ- - उन मिथ्या विचारवालों का विशेष उद्देश्य ( अधिक वर्णन ) प्रसंगवश भी विस्तारभयसे नहीं कहा है क्योंकि जिसको बहुतसे शब्द मिल भी जावें वह भी व्यर्थ ग्रन्थविस्तारको नहीं करेगा, अर्थात् कुदेव के स्वरूप के कहने की कोई आवश्यकता नहीं है । अधर्मअधर्मस्तु कुदेवानां यावानाराधनाद्यमः । तैः प्रणीतेषु धर्मेषु चेष्टा नाकायचेतसाम् ॥ ३०० ॥ अर्थ - कुदेनोंकी आराधना करनेका जितना भी उद्यम है, तथा उनके द्वारा कहे हुए मन का जो व्यापार है वह सभी अधर्म कहलाता है ।
SR No.022393
Book TitlePanchadhyayi Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherGranthprakash Karyalay
Publication Year1918
Total Pages338
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy