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________________ अध्याय।] सुबोधिनी टीका। [१५५ अमूढदृष्टिका लक्षणअतत्त्वे तत्त्वश्रद्धानं मूढदृष्टिः स्वलक्षणात् । नास्ति सा यस्य जीवस्य विख्यातः सोस्त्यमूढहक् ॥५८९॥ अर्थ-अतत्त्व में तत्त्व-श्रद्धान करना, मूढदृष्टि कहलाती है। मूढ जो दृष्टि वह मूढदृष्टि, ऐमा मूढदृष्टि शब्दसे ही स्पष्टार्थ है । जिस जीवके ऐसी मूढ़-दृष्टि नहीं है वह अमृदृष्टि प्रसिद्ध है। अस्त्यसद्धतुदृष्टान्तैमिथ्याऽर्थः साधितोऽपरैः। नाप्यलं तत्र मोहाय दृङ्मोहस्योदयक्षतेः ॥ ५९० ॥ अर्थ-दूसरे मतवालोंसे मिथ्या हेतु और दृष्टातों द्वारा मिथ्या (विपरीत) पदार्थ सिद्ध किया है। वह मिथ्यापदार्थ, मोहनीय कर्मके क्षय होनेसे सम्यग्दृष्टि में मोह (विपरीतता) पैदा करनेके लिये समर्थ नहीं है। सूक्ष्मान्तरितदूरार्थे दर्शितेऽपि कुदृष्टिभिः । नाल्पश्रुतः स मुह्येत किं पुनश्चेद्वहुश्रुतः ॥ ५९१ ॥ अर्थ—सूक्ष्म, अन्तरित तथा दूरवर्ती पदार्थोंको मिथ्यादृष्टि पुरुष यदि विपरीत रीतिसे 'दिखाने लगे तो जो थोड़े शास्त्रका जाननेवाला है वह भी मोहित नहीं होता है । यदि बहुत शास्त्रोंका पाठी हो तो फिर क्या है ? अर्थात् बहुश्रुत किसी प्रकार धोखेमें नहीं आ सक्ता है। अर्थाभासेऽपि तत्रोच्चैः सम्यग्दृष्टेन मूढता। सूक्ष्मानन्तरितोपात्तमिथ्यार्थस्य कुतो भ्रमः ॥ ५९२॥ अर्थ-जहां कहीं अर्थ-आभास भी हो वहां भी सम्यग्दृष्टि मूढ़ नहीं होता है। तो फिर आगम प्रसिद्ध सूक्ष्म अन्तरित और दूरार्थ मिथ्या बतलाये हुए पदार्थोंमें सम्यग्दृष्टिको कैसे भ्रम हो सक्ता है ? सम्यग्दृष्टिके विचारतद्यथा लौकिकी रूढिरस्ति नाना विकल्पसात् । निःसारैराश्रिता पुम्भिरथानिष्टफलप्रदा ॥ ५९३ ।। अर्थ-लौकिकी रूढ़ि नाना विकल्पोंसे होती है अर्थात् अनेक मिथ्या विचारोंसे की जाती है । निस्सार पुरुष उसे करते रहते हैं। लोकरूढ़ि सदा अनिष्ट फलको ही देती है। अफलानिष्टफला हेतुशून्या योगापहारिणी। दुस्त्याज्या लौकिकी रूढ़िः कैश्चिदुष्कर्मपाकतः ॥ ५९४ ॥ अर्थ-लोकमें प्रचलित रूढ़ि फल शुन्य है, अथवा अनिष्ट फलवाली है, हेतु शल्य
SR No.022393
Book TitlePanchadhyayi Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherGranthprakash Karyalay
Publication Year1918
Total Pages338
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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